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अध्याय ५८

श्रीनरसिंहपुराण - अध्याय ५८

अन्य पुराणोंकी तरह श्रीनरसिंहपुराण भी भगवान् श्रीवेदव्यासरचित ही माना जाता है ।


श्रीहारीत मुनि बोले - अब मैं क्रमशः क्षत्रियादि वर्णोंके लिये विहित नियमोंका यथावत् वर्णन करुँगा, जिनके अनुसार क्षत्रियादिको अपना व्यवहार निभाना चाहिये । राजपदपर स्थित क्षत्रियको उचित है कि वह धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करे । उसे भलीभाँति वेदाध्ययन और विधिपूर्वक यज्ञ भी करने चाहिये । धर्मबुद्धिसे युक्त हो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान दे, सदा अपनी ही स्त्रीमें अनुरक्त रहकर परस्त्रीका त्याग करे, नीतिशास्त्रका अर्थ समझनेमें निपुण हो, संधि और विग्रहका तत्त्व समझे । देवताओं और ब्राह्मणोंमें भक्ति रखे, पितरोंका पूजन - श्राद्धादि कर्म करे । धर्मपूर्वक ही विजयकी इच्छा करे, अधर्मको भलीभाँति त्याग दे । इस प्रकार आचरण करनेवाला क्षत्रिय उत्तम गतिको प्राप्त होता है ॥१ - ५॥

वैश्यको चाहिये कि वह विधिपूर्वक गोरक्षा, कृषि और व्यापार करे तथा अपनी शक्तिके अनुसार दानधर्म और गुरुसेवा भी करे । लोभ और दम्भस्से सर्वथा दूर रहे, सत्यवादी हो, किसीके दोष न देखे, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर परस्त्रीका त्याग करे और अपनी ही स्त्रीमें अनुरक्त रहे । यज्ञ - कालमें शीघ्रतापूर्वक ब्राह्मणोंका धनसे सम्मान करे तथा आलस्य छोड़कर प्रतिदिन यज्ञ, अध्ययन और दान करता रहे । श्राद्ध - काल प्राप्त होनेपर पितृ श्राद्ध अवश्य करे और नित्यप्रति भगवान् श्रीनृसिंहदेवका पूजन करे । अपने धर्मका पालन करनेवाले वैश्यके लिये यही कर्तव्य कर्म बतलाया गया है । पूर्वोक्त कर्मका पालन करनेवाला वैश्य निः संदेह स्वर्गलोकका अधिकारी होता है ॥६ - ९ १/२॥

शूद्रको चाहिये कि वह यत्नपूर्वक इन तीनों वर्णोंकी सेवा करे और ब्राह्मणोंकी तो दासकी भाँति विशेषरुपसे शुश्रूषा करे । किसीसे माँगकर नहीं, अपनी ही कमाईका दान करे । जीविकाके लिये कृषि - कर्म करे । प्रत्येक मासमें न्याय और धर्मके अनुसार ग्रहोंका पूजन करे, पुराना वस्त्र धरण करे । ब्राह्मणका जूठा बर्तन माँजे । अपनी स्त्रीमें अनुराग रखे । परस्त्रियोंको दूरसे ही त्याग दे । ब्राह्मणके मुखसे पुराणकथा श्रवण करे, भगवान् नरसिंहका पूजन करे । इसी प्रकार ब्राह्मणोंको श्रद्धापूर्वक नमस्कार करे । राग - द्वेष त्याग दे और सत्यभाषण करे । इस प्रकर मन, वाणी, शरीर और कर्मसे आचरण करनेवाला शूद्र पापरहित हो पुण्यका भागी होता है और मृत्युके पश्चात् इन्द्रलोकको प्राप्त होता है ॥१० - १५॥

मुनीन्द्रगण ! वर्णोंके ये नाना प्रकारके धर्म मैंने आप लोगोंसे क्रमशः कहे हैं । इन्हें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने बतलाया है । अब मैं क्रमसे प्रथम ब्रह्मचर्य - आश्रमके धर्म बता रहा हूँ, आप लोग सुनें ॥१६॥

श्रीहारीत मुनि बोले - उपनयन - संस्कर हो जानेके बाद ब्रह्मचारी बालक सदा गुरुकुलमें निवास करे । उसको चाहिये कि मन, वाणी और कर्मसे गुरुका प्रिय और हित करे । वह ब्रह्मचर्यका पालन, भूमिपर शयन और अग्निकी उपासना करे । गुरुके लिये जलका घड़ा भरकर लाये और हवनके निमित समिधा ले आये । इस प्रकार सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य - आश्रममें रहकर विधिपूर्वक अध्ययन करना चाहिये । जो विधिका त्याग करके अध्ययन करता है, उसे उस अध्ययनका फल नहीं प्राप्त होता ( उसकी विद्या सफल नहीं होती ) । विधिकी अवहेलना करके वह जो कुछ भी कर्म करता है, विधिभ्रष्ट एवं नास्तिक होनेके कारण उसे उसका फल नहीं मिलता । इसलिये गुरुकुलमें रहकर अपने अध्ययनकी सफलताके लिये उपर्युक्त व्रतोंका आचरण करना चाहिये और गुरुके निकट समस्त शौचाचारोंको सीखना चाहिये । ब्रह्मचारी सावधान और एकाग्रचित्त रहकर मृगचर्म, पलाशदण्ड, मेखला और उपवीत ( जनेऊ ) धारण करे । अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखकर सायंकाल और प्रातः काल भिक्षासे मिला हुआ अन्न भोजन करे । गुरुके कुलमें और उनके कुटुम्बी बन्धु - बान्धवोंके घरमें भिक्षा ले सकता है; किंतु यथासाध्य पूर्व - पूर्व गृहोंका त्याग करे । अर्थात् पहले कहे हुए गुरुगृह या गुरुकुलका त्यागकर अन्यत्र भिक्षा ले । नित्य आचमन करके शुद्धचित्त होकर गुरुकी आज्ञा से भोजन करे । रात्रि बीतनेपर गुरुसे पहले ही अपने आसनसे उठ जाय और गुरुके लिये कुश, मिट्टी, दाँतुन और वस्त्र आदि अन्य सामान एकत्र करके उनको दे । गुरुजीके स्त्रान कर लेनेपर स्वयं यत्नपूर्वक स्त्रान करे । ब्रह्मचारी सदा व्रत रखे और काठ आदिसे दन्तधावन न करे ॥१७ - २६॥

छाता, जूता, उबटन, गन्धयुक्त इत्र आदि और फूल - माता आदिको त्याग दे । विशेषतः नाच, गान और ग्राम्य कथा - वार्ता एवं मैथुनका सर्वथा त्याग करे । मधु, मांस और रसास्वाद ( जिह्वाके स्वाद ) - को त्याग दे । स्त्रियोमसे अलग रहे । काम, क्रोध, लोभ तथा दूसरे मनुष्योंके अपवाद ( निन्दा ) - का परित्याग करे । स्त्रियोंकी ओर देखने, उनका स्पर्श करने और दूसरे जीवोंकी हिंसा करने आदिसे बचकर रहे । सब जगह अकेले ही शयन करे, कभी कहीं भी वीर्यपात न करे । यदि कामभाव न होनेपर भी स्वप्नमें वीर्य - स्खलन हो जाय तो ब्रह्मचारी द्विजको चाहिये, वह स्नान क के सूर्य और अग्निकी आराधना करे तथा ' पुनर्मामेत्विन्द्रियम् ' इस ऋचाका जप करे । ईश्वर और परलोकके अस्तित्वपर विश्वास करता हुआ, ब्रह्मचारियोंके लिये उचित व्रतके पालनमें तत्पर रहकर, जितेन्द्रिय हो, प्रतिदिन न्यायतः प्राप्त त्रिकालसंध्याकी उपासना करे । संध्या - कर्म समाप्त होनेपर गुरुके चरणोंमें प्रणाम करे और यदि सुयोग प्राप्त हो तो माता - पिताके चरणोंमें भी भक्तिपूर्वक प्रणाम करे । इन तीनोंके संतुष्ट होनेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न रहते हैं; इसलिये ब्रह्मचारीको चाहिये कि डाह छोड़कर इन तीनोंके शासनमें रहे । यथासम्भव चार, दो अथवा एक ही वेदका अध्ययन पूर्ण करके गुरुको दक्षिणा दे । फिर अपने इच्छानुसार कहीं भी निवास करे । यदि वह विद्वान् ब्रह्मचारी विरक्त हो, तब तो संन्यासी हो जाय; किंतु यदि उसका विषय - भोगोंके प्रति अनुराग हो तो गृहस्थाश्रममें प्रवेश करे। द्विजो ! रागी पुरुष यदि संन्यासी हो जाय तो वह निश्चय ही नरकमें जाता है । जिसकी जिह्वा, उपस्थ ( जननेन्द्रिय ), उदर और वाणी शुद्ध हों, अर्थात् जो स्वाद, काम और बुभुक्षाको जीत चुका हो और सत्यवादी या मौन रहता हो, वह पुरुष यदि ब्रह्मचर्यवान् ब्राह्मण हो तो वह विवाह न करके संन्यास ले सकता है ॥२७ - ३६॥

इस प्रकार जो आलस्य त्यागकर विधिका पालन करते हुए ही समय - यापन करता है, वह ब्रह्मचारी अधिकाधिक दृढ़ व्रतवाला होता है । जो ब्रह्मचारी पूर्वोक्त विधिका सहारा लेकर गुरु - सेवापरायण हो पृथ्वीपर भ्रमण करता है, वह दुर्लभ विद्याको भी सीखकर उसके सम्पूर्ण फलोकों प्राप्त कर लेता है ॥३७ - ३८॥

श्रीहरित मुनि कहते हैं - पूर्वोक्त रीतिसे वेदाध्ययन समाप्तकर श्रुति तथा अन्यान्य शास्त्रोंके अर्थ एवं तत्वका ज्ञान रखनेवाल ब्रह्मचारी विद्वान् गुरुसे आशीर्वाद प्राप्तकर विधिपूर्वक समावर्तन - संस्कार आरम्भ करे । फिर, जिसके नाम और गोत्र अपनेसे भिन्न हो, जिसके भाई भी हो, जो सुन्दरी एक शुभ लक्षणोंवाली हो, जिसके शरीरके सभी अवयव अविकल हों और जिसका आचरण उत्तम हो, ऐसी कन्याके साथ विवाह करे । जिसके शरीरका रंग कपिल हो, जो अधिकाङ्गी या रोगिणी हो, बहुत बोलनेवाली और अधिक रोमवाली हो, जिसका कोई अङ्ग विकृत या हीन हो और जिसकी सूरत डरावनी हो, ऐसी कन्यासे विवाह न करे । जिसका नाम नक्षत्र, वृक्ष या नदीके नामपर रखा गया हो, अथवा जिसके नामके अन्तमें पर्वतवाचक शब्द हो, अथवा जो पक्षी, साँप और दास आदि अर्थवाले नामोंसे युक्त हो, या जिसका भयंकर नाम हो, ऐसी कन्यासे भी विवाह न करे । जिसके शरीरके सभी अवयव सुडौल हों, नाम कोमल और मधुर हो, जो हंस या गजराजके समान मन्द एवं लीलायुक्त गतिसे चलनेवाली हो, जिसके अधर, दाँत और केश पतले हों एवं जिसका शरीर कोमल हो, ऐसी कन्यासे विवाह करे । श्रेष्ठ द्विजातिको चाहिये कि यथासम्भव सर्वोतम ब्राह्मविधिसे विवाह करे । इस प्रकार वर्णधर्मके अनुसार विवाह - संस्कार पूर्ण करना चाहिये ॥३९ - ४४॥

इसके बाद विद्वान् द्विजको चाहिये कि प्रतिदिन सूर्योदयसे पूर्व उठकर शौचादिके अनन्तर दन्तधावन करके तुरंत स्नान कर ले । प्रतिदिन रातमें सोकर उठानेके बाद मुख पर्युषित होनेके कारण मनुष्य अपवित्र रहता है, अतः शुद्धिके लिये सूखा या गीला दन्तधावन अवश्य चबाना चाहिये । दाँतुनके लिये खदिर, कदम्ब, करञ्ज, वट, अपामार्ग, बिल्व, मदार और गूलर - ये वृक्ष उत्तम माने गये है । दन्तधावनके लिये उपयुक्त काष्ठ और उसकी उत्तमताका लक्षण बता रहा हूँ ॥४५ - ४८॥

जितने काँटेवाले वृक्ष हैं, वे सभी पवित्र हैं । जितने दूधवाले वृक्ष हैं, वे सभी यश देनेवाले हैं । दाँतुनकी लकड़ीकी लम्बाई आठ अंगुलकी बतायी जाती है । अथवा बित्तमात्र उसकी लम्बाई होनी चाहिये । ऐसी दाँतुनसे दाँतोको स्वच्छ करना चाहिये । परंतु साधुशिरोमणियो । प्रतिपदा, अमावस्या, षष्ठी और नवमीको काठकी दाँतुन नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उक्त तिथियोंको यदि दाँतसे काठका संयोग हो जाय तो वह सात पीढ़्दीतकके कुलको दग्ध कर डालता है । जिस दिन दाँतुन न मिले या जिस दिन दाँतुन करना निषिद्ध है, उस दिन बारह बार जलका कुल्ला करके मुखकी शुद्धि कर लेनेकी विधि है ॥४९ - ५१ १/२॥

दाँतुनके बाद स्नान करे । फिर मन्त्रपाठपूर्वक आचमन करके पुनः आचमन करना चाहिये । मन्त्रपाठपूर्वक अपने ऊपर भी जल छिड़के और सूर्यके लिये अर्घ्यके तौरपर जलाञ्जलि भरकर उछाले । अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके वरदानसे प्रबल हुए ' मन्देह ' नामक राक्षस प्रतिदिन प्रातःकाल आकर सूर्यके साथ युद्ध करते हैं; किंतु जब गायत्रीसे अभिमन्त्रित जलाञ्जलि सूर्यदेवके सामने उछाली जाती है, तब वह उन समस्त सूर्य - वैरी मन्देह नामके राक्षसोंको मार भगाती है । तत्पश्चात् महाभाग मरीचि आदि ब्राह्मणों और सनकादिक योगियोंद्वारा रक्षित हो, भगवान् सूर्यदेव आकाशमें आगे बढ़ते हैं । इसलिये द्विजको चाहिये कि सायं और प्रातः कालकी संध्याका कभी उल्लङ्घन न करे । जो मोहवश संध्याका उल्लङ्घन करता है, वह अवश्य ही नरकमें पड़ता है । यदि सायंकालमें मन्त्रपाठपूर्वक आचमन करके अपने ऊपर जल छिड़ककर फिर भगवान् सूर्यको जलाञ्जलि अर्पित की जाय और उनकी परिक्रमा करके अपने ऊपर जल छिड़ककर फिर भगवान् सूर्यको जलाञ्जलि अर्पित की जाय और उनकी परिक्रमा करके पुनः जलका स्पर्श किया जाय तो वह द्विज शुद्ध हो जाता है । प्रातः कालकी संध्या तारोंके रहते - रहते विधिपूर्वक आरम्भः करे और जबतक तारोंका दर्शन हो, तबतक गायत्रीका जप करता रहे । तत्पश्चात् घरमें आकर विद्वान् पुरुषको स्वयं हवन करना चाहिये । फिर जो भृत्य - पालनीय कुटुम्बीजन तथा दास आदि हों, उनके भरण - पोषणके लिये विद्वान् गृहस्थ चिन्ता ( आवश्यक प्रबन्ध ) करे । उसके बाद शिष्योंके हितके लिये कुछ देरतक स्वाध्याय करे । उत्तम द्विजको चाहिये कि अपनी रक्षाके लिये ईश्वरका सहारा ले । फिर दू जाकर पूजाके लिये कुश, फूल और हवनके लिये समिधा आदि ले आये और पवित्र स्थानमें एकाग्रचित्तसे बैठकर मध्याह्नकालिक क्रिया ( संध्योपासना आदि ) करे ॥५२ - ६१ १/२॥

अब हम थोड़ेमें स्नानकी विधि बतला रहे हैं जो समस्त पापोंको नष्ट करनेवाली हौइ । उस विधिसे स्नान करके मनुष्य तत्काल पापोंसे मुक्त हो जाता है । बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि स्नानके लिये कुश और तिलोंके साथ शुद्ध मिट्टी ले ले तथा प्रसन्नचित्त होकर शुद्ध और मनोहर नदीके तटपर जाय । नदीके होते हुए छोटे जलाशयोंमें स्नान न करे । वहाँ पवित्र स्थानपर उसे छिड़ककर कुश और मृत्तिका आदि रख दे । फीर विद्वान पुरुष मिट्टी और जलसे अपने शरीरको यत्नपूर्वक लिप्त करके, शुद्ध स्नानाके द्वारा उसे धोकर पुनः आचमन करे । तदनन्तर स्वच्छ जलमें प्रवेश करके जलेश वरुणको नमस्कार करे । फिर मन - ही - मन भगवान् विष्णुका स्मरण करते हुए जहाँ कुछ अधिक जल हो, वहाँ डुबकी लगाये । इसके बाद स्नान समाप्तकर, मन्त्रपाठपूर्वक आचमन करके, वरुणसम्बन्धी पवमान - मन्त्रोंद्वारा वरुणदेवका अभिषेक करे । फिर कुशके अग्रभागपर स्थित जलसे अपना यत्नपूर्वक मार्जन करे और ' इदं विष्णुर्विचक्रमे ' इस मन्त्रका पाठ करते हुए अपने शरीरके तीन भागोंमें क्रमशः मृत्तिकाका लेप करे । तत्पश्चात् भगवान् नारायणका स्मरण करते हुए जलमें प्रवेश करे । जलके भीतर भली प्रकार डुबकी लगाकर तीन बार अघमर्षण पाठ करे । इस प्रकार स्नान करके कुश और तिलोंद्वारा देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे । इसके बाद समाहितचित हो, जलसे बाहर निकल, तटपर आकर धुले हुए दो श्वेत वस्त्रोंको धारण करे । इस प्रकार धोती और उत्तरीय धारणकर अपने केशोंको न फटकारे । अत्याधिक लाल और नील वस्त्र धारण करना भी उत्तम नहीं माना गया है । विद्वान् पुरुषको चाहिये कि जिस वस्त्रमें मल या दाग लगा हो, अथवा जिसमें किनारी न हो, उसका भी त्याग करे ॥६२ - ७२ १/२॥

इसके पश्चात् विज्ञ पुरुष मिट्टी और जलसे अपने चरणोंको धोये । फिर खूब देख - भालकर शुद्ध जलसे तीन बार आचमन करे । दो बार जल लेकर मुँह धोये । पैर और सिरपर जल छिड़के । फिर तीन बार आचमन करके क्रमशः अङ्गोंका स्पर्श करे । अँगूठे और तर्जनीसे नासिकाका स्पर्श करे । अङ्गुष्ठ और कनिष्ठिकासे नाभिका स्पर्श करे । हदयका करतलसे स्पर्श करे । तदनन्तर समस्त अँगुलियोंसे पहले सिरका, फिर बाहुओंका स्पर्श करे । इस प्रकार आचमन करके ब्राह्मण शुद्धहदय हो, हाथमें कुश ले, पूर्वकी ओर मुख करके एकाग्रतापूर्वक कुशासनपर बैठ जाय और आलस्यको त्यागकर शास्त्रोक्त विधिसे - तीन बार प्राणायाम करे ॥७३ - ७७॥

तत्पश्चात् वेदमाता गायत्रीका जप करते हुए जपयज्ञ करे । जपयज्ञ तीन प्रकारका होता है; उसका भेद बताते हैं, आप लोग सुनें । वाचिक, उपांशु और मानस - तीन प्रकारका जप कहा गया है । इन तीनों जपयज्ञोंमें उत्तरोत्तर जप श्रेष्ठ है, अर्थात् वाचिक जपकी अपेक्षा उपांशु और उसकी अपेक्षा मानस जप श्रेष्ठ है । अब इनके लक्षण बताते हैं । जप करनेवाला पुरुष आवश्यकतानुसार ऊँचे, नीचे और समान स्वरोंमें बोले जानेवाले स्पष्ट शब्दयुक्त अक्षरोंद्वारा जो वाणीसे सुस्पष्ट शब्दोच्चारण करता है, वह ' वाचिक जप ' कहलाता है । इसी प्रकार जो तनिक - सा ओठोंको हिलाकर धीरे - धीरे मन्त्रका उच्चारण करता है और मन्त्रको स्वयं ही कुछ - कुछ सुनता या समझता है, उसका वह जप ' उपांशु ' कहलाता है । बुद्धिके द्वारा मन्त्राक्षरसमूहके प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक पद और शब्दार्थका जो चिन्तन एवं ध्यान किया जाता है, वह ' मानस जप ' कहा गया है । जपके द्वारा प्रतिदिन जिसका स्तवन किया जाता है, वह देवता प्रसन्न होता है और प्रसन्न होनेपर वह विपुल भोग तथा नित्य मोक्ष - सुखको भी देता है । यक्ष - राक्षस - पिशाच आदि और सूर्यादि देवताओंको दूषित करनेवाले अन्य ( राहु - केतु आदि ) ग्रह भी जप करनेवाले पुरुषके निकट नहीं जाते, दूरसे ही भाग जाते हैं ॥७८ - ८४॥

द्विजको चाहिये कि वह आलस्यका त्याग करके प्रतिदिन तारोंको देखकर अर्थात् तारोंके रहते - रहते स्नान करके, गायत्रीके अर्थमें मन लगा गायत्री - मन्त्रका जप करे । जो द्विज अधिक - से - अधिक एक हजार, साधारणतया एक सौ अथवा कम - से - कम दस बार प्रतिदिन गायत्रीका जप करता है, वह पापोंसे लिप्त नहीं होता ॥८५ - ८६॥

इसके बाद सूर्यदेवको पुष्पाञ्जलि अर्पित करके अपणी भुजाएँ ऊपर उठाकर ' ॐ उदुत्यं जातवेदसम् ...........' तथा ' ॐ तच्चक्षुर्देवहितम् ..........' इन मन्त्रोंका जप करे । फिर प्रदक्षिणा करके सूर्यदेवको प्रणाम करे । तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष प्रतिदिन देवतीर्थसे ( उँगलियोंद्वारा ) देवताओंका तर्पण करे । विज्ञ पुरुषको देवताओं और उनके गणोंका ऋषियों और उनके गणोंका तथा पितरों और पितृगणोंकी प्रतिदिन तर्पण करना चाहिये । तदनन्तर स्नानके बाद उतारे हुए वस्त्रको निचोड़कर पुनः आचमन करे । फिर हाथमें कुश लेकर कुशासनपर बैठ जाय और ब्रह्मयज्ञकी विधिके अनुसार पूर्वाभिमुख हो बुद्धिपूर्वक ब्रह्मयज्ञ ( वेदका स्वाध्याय ) करे । तदनन्तर खड़ा होकर तिल, फूल और जलेसे युक्त अर्घ्यपात्रको अपने मस्तकतक ऊँचे उठा ' हंस शुचिषत् ........' इस ऋचाका पाठ करते हुए सूर्यदेवके लिये अर्घ्य दे । फिर जलमें स्थित वरुणदेवको नमस्कार कर पुनः घरपर आ जाय और वहाँ पुरुषसूक्तसे भगवान् विष्णुका विधिवत् पूजन करे । तदनन्तर विधिपूर्वक बलिवैश्वदेव कर्म करे ॥८७ - ९३॥

इसके बाद जितनी देरमें गौ दुही जाती है, उतनी देरतक द्वारपर अतिथिके आनेकी प्रतीक्षा करे । यदि कई अतिथि आ जायँ तो उनमेंसे जिसे पहले कभी न देखा हो, उसका सम्मान सबसे पहले करना चाहिये । द्वारपर आकर अतिथिको खड़े होकर भलीभाँति अगवानी करनेसे गृहस्थके ऊपर दक्षिण, गार्हपत्य और आहवनीय - तीनों अग्नि प्रसन्न होते हैं; आसन देनेसे देवराज इन्द्रको प्रसन्नता होती है, अन्न आदि भोज्य पदार्थ अर्पण करनेसे प्रजापति प्रसन्न होते हैं । इसलिये गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वह अतिथिका पूजन करे ॥९४ - ९७॥

इसके पश्चात् भक्तिमान् पुरुष प्रतिदिन भगवान् विष्णुकी भक्तिपूर्वक पूजा करके उनका चिन्तन करे । फिर संन्यासी, विरक्त एवं ब्रह्मचारीको भिक्षा दे । सब प्रकारसे तैयार किये हुए अन्नमेंसे समस्त व्यञ्जनोंसे युक्त कुछ अन्न निकालकर प्रतिदिन यत्नपूर्वक भिक्षु ( संन्यासी ) - को देना चाहिये । बलिवैश्वदेव करनेके पहले भी यदि भिक्षु भिक्षाके लिये आ जाय तो उसे अवश्य भिक्षा देनी चाहिये; क्योंकि यह दान स्वर्गमें जानेके लिये सीढ़ीका काम देता है । विश्वेदेवसम्बन्धी अन्नमेंसे लेकर भिक्षुको भिक्षा देकर उसे विदा करे । वैश्वदेव कर्म न करनेके दोषको वह भिक्षु दूर कर सकता है । फिर सुवासिनी ( सुहागिन ) और कुमारी कन्याओं तथा रोगी व्यक्तियोंको और बालकों एवं वृद्धोंको पहले भोजन कराके उनसे बचे हुए अन्नको गृहस्थ पुरुष स्वयं भोजन करे ॥९८ - १०२॥

भोजन करते समय पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके बैठे और मौन रहे अथवा कम बोले । भोजनसे पहले प्रसन्नचित्तसे अन्नको नमस्कार करके पृथक् - पृथक् पाँच प्राणवायुओंके नाम - मन्त्रसे अर्थात् ' ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा ' - इस प्रकार उच्चारण करते हुए पाँच बार प्राणाग्रिहोत्र करे । इसके बाद एकाग्रचित्त होकर उस स्वदिष्ट अन्नको स्वयं भोजन करे भोजनके बाद मुँह - हाथ धो, आचमन ( कुल्ला ) करके, अपने उदरका स्पर्श करते हुए इष्टदेवका स्मरण करे । फिर विद्वान् पुरुष इतिहास - पुराणोंके अध्ययनमें कुछ समय व्यतीत करे । तदनन्तर सायंकाल आनेपर बाहर ( नदी या जलाशयके तटपर ) जाकर विधिपूर्वक संध्योपासन करे । पुनः रात्रिकालमें हवन करके अतिथि - सत्कारके पश्चात् भोजन करे । द्विजातियोंके लिये प्राप्तः और सायं - दो ही समय भोजन करना वेदविहित हैं; इसके बीचमें भोजन नहीं करना चाहिये । जैसे अग्निहोत्र प्रातः और सायं - दो ही समय भोजन करना वेदविहित है; इसके बीचमें भोजन नहीं करना चाहिये । जैसे अग्निहोत्र प्रातः और सायंकालमें किया जाता है, वैसे ही दो ही समय भोजनकी भी विधि है ॥१०३ - १०७॥

इसके अतिरिक्त विद्वान् द्विजको चाहिये कि वह प्रतिदिन शिष्योंको पढ़ाये, परंतु अध्ययनके लिये वर्जित समयका त्याग करे । स्मृतिमें अनध्याय - कालको त्याग दे । महानवमी ( आश्विन शुक्ला नवमी ) और द्वादशी तिथि, भरणी नक्षत्र और अक्षयतृतीयामें विद्वान पुरुष शिष्योंको न पढ़ाये । माघ मासकी सप्तमीको अध्ययन न करे, सड़कपर चलते समय और उबटन लगाकर स्नान करते समय भी अध्ययनका त्याग करे ॥१०८ - ११०॥

अपना हित चाहनेवाले गृहस्थको चाहिये कि विधिपूर्वक दान करे । विशेषतः सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करे । जो द्विजश्रेष्ठ सुवर्ण आदि पूर्वोक्त वस्तुएँ श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको दानमें देता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है । जो गृहस्थ शुभाचरणोंसे युक्त, पवित्र और श्रद्धालु रहकर श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है । वह भगवान् नरसिंहकी कृपासे जातिमें उत्कर्ष प्राप्त करता है और सत्तमो ! ब्रह्माजीके साथ ही वह मुक्त हो जाता है । विप्रगण ! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे यह सनातन धर्मसमूहका संक्षेपसे वर्णन किया । जो पुरुष सदगृहस्थके उक्त धर्मका भलीभाँति प्रयत्नपूर्वक पालन करता है, वह मुक्त होकर भगवान्‍ श्रीहरिको प्राप्त करता है ॥१११ - ११५॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' गृहस्थधर्म ' नामक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५८॥

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Last Updated : October 02, 2009

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