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गुरु-पूजा विधि

कालीतंत्र - गुरु-पूजा विधि

तंत्रशास्त्रातील अतिउच्च तंत्र म्हणून काली तंत्राला अतिशय महत्व आहे.


गुरु-पूजा विधि

देव्युवाच
इदानीं श्रोतुमिच्छामि गुरुपूजनमुत्तमम् ॥

भावार्थः देवी बोलीं, हे प्रभु! अब श्रेष्ठ गुरुपूजन विधि सुनने की मेरी प्रबल इच्छा है ।

ईश्वरोवाच
कथयामि महादेवी अप्रकाश्यं वरानने ।
निर्गुणं च परंब्रह्म गुरुरित्यक्षरद्वयम् ॥
महामंत्रं महेशानी गोपनीयं परात्परम् ।
तत्र ध्यानं प्रवक्ष्यामि श्रृणु पार्वति सादरम् ॥

भावार्थः महादेव बोले, हे सुमुखी ! मैं तुमसे इस अप्रकाशित विद्या को कहता हूं । गुरु आदि दो अक्षर ही परमब्रह्म स्वरूप कहे जाते हैं । हे पार्वती ! यह महामंत्र ही श्रेष्ठ है । इसे गुप्त ही रखना चाहिए । हे देवी ! सर्वप्रथम मैं ध्यान विधि बताता हूं । तुम शांतचित्त से सुनो ।

सहस्रदलपद्मस्थमंतरात्मानमुज्ज्वलम् ।
तस्योपरि नादविंदोर्मध्ये सिंहासनोज्ज्वले ॥
चिंतयेन्निजगुरुं नित्यं रजताचलसन्निभम् ।
वीरासनसमासीनं मुद्राभरणभूषितम् ॥

भावार्थः हजार दल (पंखुडियों) युक्त कमल के बीच में ज्योतिस्वरूपा अंतरात्मा का निवास है । उसके ऊपरी भाग पर नाद व बिंदु के मध्य में उज्ज्वल सिंहासन पर श्रीगुरु विराजते हैं । चांदी के पर्वत सम शुभ्र निजगुरु का सदैव स्मरण करना चाहिए । गुरुदेव सदैव वीरासन मुद्रा में स्थित रहते हैं । वे मुद्राभरणादि से विभूषित हैं ।

शुभ्रमाल्यांबरधर वरदाभयपाणिनम् ।
वामोरुशक्तिसहितं कारुण्येनावलोकितम् ॥
प्रियया सव्यहस्तेन धृतचारुकलेवरम् ।
वामेनोत्पलधारिण्या रक्ताभरणभूषया ।
ज्ञानानंदसमायुक्तं स्मरेतन्नामपूर्वकम् ॥

भावार्थः वह श्वेत माला धारण किए हैं, उनके वस्त्र भी श्वेत हैं । उनके हाथ वर और अभय मुद्रा में उठे हैं । वाम ऊरु (बाईं जांघ) पर शक्ति है तथा वह करुणापूरित नेत्रों से देख रहे हैं । लाल वस्त्रों से सुशोभित व हाथ में कमल लिए प्रिया (लक्ष्मी) अपने दाएं हाथ में सुंदर कलेवर धारण किए हैं । बाएं हाथ में कमल धारण किए व लाल वस्त्रों से सुशोभित ज्ञान शक्ति से वह सुशोभित हैं । ऐसे गुरु को नाम के साथ स्मरण करना चाहिए ।

मानसैरूपचारैश्च संपूज्य कल्पयेत सुधीः ।
गंधं भूम्यात्मकं दद्यात् भावपुष्पैस्ततः परम् ।
धूपं वायव्यात्मकं देवि तेजसा दीपमेव च ॥
नैवेद्यममृतं दद्यात् पानीयं वरुणात्मकम् ।
अंबरं मुकुटं दद्याद् वस्त्रं चैव मम प्रिये ॥
चामरं पादुकाच्छत्रं तथालंकारभूषणैः ।
तत्तन्मुद्राविधानेन संपूज्याथ गुरुं यजेत् ।
यथाशक्तिं जपं कृत्वा समर्प्य कवचं पठेत् ॥

भावार्थः प्रबुद्ध साधक को चाहिए कि वह भावनात्मक रूप से गुरु की मानसिक पूजा करे । यथा पृथ्वी तत्त्व को गंध रूप, वायु तत्त्व को धूप रूप तथा अग्नि तत्त्व को दीप रूप माने । अमृत को नैवेद्य रूप, वरुण को जल तथा आकाश को मुकुट व वस्त्र रूप में माने । हे प्रिये ! इस तरह पादुका, चामर, छत्र व अलंकारादि मुद्रा की कल्पना करते हुए साधक को गुरु की मानसिक पूजा करनी चाहिए । मानसिक पूजा के बाद यथाशक्ति जाप करना चाहिए । फिर वह जाप गुरु को अर्पित कर गुरु के कवच का पाठ करना चाहिए ।

देव्युवाच
भूतनाथ महादेव कवचं तस्य मे वद ॥

भावार्थः देवी बोलीं, हे भूतभावन महादेव! अब आप मुझे गुरु कवच का उपदेश करें ।

ईश्वरोवाच
अथ ते कथयामीशे कवचं मोक्षदायकम् ।
यस्य ज्ञानं विना देवी न सिद्धिर्न च सद्‌गतिः ॥
ब्रह्मादयोऽपि गिरिजे सर्वत्र जयिनः स्मृताः ।
अस्य प्रसादात् सकला वेदागमपुरः सराः ॥
कवचस्यास्य देवेशी ऋषिविष्णुरुदाहृतः ।
छंदो विराड्‌देवता च गुरुदेवः स्वयं शिवः ॥
चतुर्वर्गं ज्ञानमार्गे विनियोगः प्रकीर्तितः ।
सहस्रारे महापद्मे कर्पूरधवलो गुरुः ॥

भावार्थः महादेव बोले, हे देवी! गुरु कवच मोक्षप्रदाता है । इसको जाने बिना सिद्धि नहीं मिलती और न ही सद्‌गति मिलती है । इस कवच के प्रभाव से वेद-आगम के ज्ञाता, ब्रह्मादि देवता सर्वत्र विजयी होते हैं । इस कवच के ऋषि विष्णु, छंद विराट और देवता गुरुदेव शिव हैं । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में सहस्रार रूप महापद्‌म में कपूर वर्ण सदृश गुरु ही कवच के विनियोग हैं ।

वामोरुगतशक्तिर्यः सर्वतः परिरक्षतु ।
परमाख्यो गुरुः पातु शिरसे मम वल्लभे ॥
परापराख्यो नासां मे परमेष्टिम्मुखं मम ।
कंठं मम सदा पातु प्रह्‌लादानंद नाथकः ॥

भावार्थः जिनकी बाईं जांघ पर शक्ति विराजमान हैं । वह परम सदाशिव गुरु सर्वत्र रक्षा करें । परम गुरु मेरे शीश की रक्षा करें । परात्पर गुरु मेरी नासिका की, परमेष्ठि गुरु मेरे मुख की रक्षा करें । परमानंद व आह्लादित करनेवाले गुरुदेव मेरे कंठ की रक्षा करें ।

बाहु द्वौ सनकानंदः कुमारानंदनाथकः ।
वशिष्ठानंदनाथश्च हृदयं पातु सर्वदाः ॥
क्रोधानंदः कटिः पातु सुखानंदः पदं मम ।
ध्यानानंदश्च सर्वांग बोधानंदश्च कानने ॥
सर्वत्र गुरवः पांतु सर्वे ईश्वररूपिणः ।
इति ते कथितं भद्रे कवचं परमं शिवे ॥

भावार्थः सनक ऋषि व कुमार को आनंदित करनेवाले मेरी भुजाओं की रक्षा करें । वशिष्ठ को आनंद देनेवाले मेरे ह्रदय की रक्षा करें । क्रोधानंद कटि प्रदेश की, सुखानंद पैरों की रक्षा करें । ध्यानानंद मेरे सभी अंगों की, बोधानंद कानन (वन आदि) में मेरी रक्षा करें । ईश्वर रूप सभी गुरु सर्वत्र मेरी रक्ष करें । हे शिवे ! इस तरह मैंने तुमसे यह कवच कहा है ।

भक्तिहीने दुराचारे दद्यान्मृत्युमवाप्नुयात् ।
अस्यैव पठनाद् देवी धारणाच्छ्रवणात् प्रिये ।
मंत्राः सिद्धाश्च जायंते किमन्यत् कथयामि ते ॥

भावार्थः हे प्रिये ! श्रद्धारहित, दुराचारी व्यक्ति को इस कवच का उपदेश नहीं देना चाहिए । इस कवच को धारण व श्रवण करने से मंत्रसिद्धि होती है ।

कंठे वा दक्षिणे बाहौ शिखायां वीरवंदिते ।
धारणान्नाशयेत पापं गंगायां कलुषं यथा ॥
इदं कवचमज्ज्ञात्वा यदि मंत्रं जपेत् प्रिये ।
तत् सर्वं निष्फलं कृत्वा गुरुर्याति सुनिश्चितम् ॥

भावार्थः वीरगणों द्वारा वंदित हे देवी ! कंठ, दाईं बांह या शिखा (चोटी) में इस कवच को अवश्य धारण करना चाहिए । ऐसा करने से धारणकर्ता के सभी पाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे गंगा स्नान करने से । कवच के अभाव में जो कोई भी मंत्र जपता है, गुरुगण उसके जाप को निष्प्रभावी कर देते हैं । इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है ।

शिवे रुष्टे गुरूस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चनः ॥

भावार्थः शिव के क्रोधित होने पर गुरु रक्षा करते हैं । लेकिन गुरु के क्रोधित हो जाने पर कोई भी रक्षा नहीं कर सकता ।

देव्युवाच
लोकेन कथ्यतां देव गुरुर्गीता मयि प्रभो ॥

भावार्थः देवी बोलीं, हे प्रभु ! अब आप मुझे गुरु गीता का भी उपदेश कीजिए ।

ईश्वरोवाच
श्रृणु तारिणि वक्ष्यामि गीतां ब्रह्ममयीं पराम् ।
गुरुस्त्वं सर्वशास्त्राणां महमेव प्रकाशकः ॥
त्वमेव गुरुरूपेण लोकानां त्राणकारिणी ।
गया गंगा काशिका च त्वमेव सकलं जगत् ॥
कावेरी यमुना रेवा करतोया सरस्वती ।
चंद्रभागा गौतमी च त्वमेव कुलपालिका ॥

भावार्थः महादेव बोले, हे देवी ! अब मैं तुम्हें श्रेष्ठ ब्रह्ममयी गीता (गुरु गीता) के बारे में बताता हूं । एकाग्र होकर श्रवण करो । तुम सभी शास्त्रों की गुरु रूप हो लेकिन उजागरकर्ता मैं हूं । तुम ही गुरु रूप से सृष्टि की रक्षा करती हो । गया, गंगा, काशी, कावेरी, यमुना, नर्मदा, सरस्वती, करतोया, चंद्रभागा, गौतमी रूप से तुम ही कुलपालिका हो ।

ब्रह्मांडं सकलं देवी कोटिब्रह्मांडमेव च ।
नहि ते वक्तुर्महामि क्रियाजालं महेश्वरी ॥
उक्त्वा उक्त्वा भावयित्वा भिक्षुकोऽयं नगात्मजे ।
कथं त्वं जननी भूत्वा बधुस्त्वं मम देहिनाम् ॥

भावार्थः हे देवी ! समूचे ब्रह्मांड में (करोडों ब्रह्मांडों) भी तुम्हारे क्रिया-साधन का छोर नहीं है । अर्थात उन्हें बखान नहीं किया जा सकता । हे पर्वतपुत्री ! उन सभी क्रियाओं को कहते-कहते और उनकी कल्पना करते-करते यह शिव (मैं) भी भिक्षु सम हो गया है । तुम तो सृष्टि जीवों की जननी हो । फिर कैसे तुम मेरी अर्द्धांगिनी बनकर विराजमान हो ?

तव चक्र महेशानी अतीतः परमात्मनः ।
इति ते कथिता गीता गुरुदेवस्य ब्रह्मणः ॥
संक्षेपेण महेशानि प्रभुरेव गुरूः स्वयम् ।
जगत् समस्तमस्थेयं गुरुस्थेयो हि केवलं ॥

भावार्थः हे महेशानी ! तुम्हारा चक्र (काल क्रम) परमपिता के भी समझ में न आनेवाला है । इस तरह ब्रह्मरूप गुरु गीता का वर्णन किया गया है । निष्कर्ष रूप में गुरु ही स्वयंभू हैं । यह सृष्टि तो नाशवान है जबकि गुरु अविनाशी हैं ।

तं तोषयित्वा देवेशी नतिभिः स्तुतिभिस्तथा ।
नानाविधद्रव्यदानैः सिद्धिः स्यात् साधकोत्तमः ॥

भावार्थः हे देवी ! उन गुरुदेव को नमन, स्तुति व नानाविध द्रव्यों से प्रसन्न करना चाहिए । ऐसा करने से ही साधक को श्रेष्ठ सिद्धि की प्राप्ति होती है ।

वर्णसमूह का रहस्य

देव्युवाच
त्रिपुरेश महेशान प्राणवल्लभः ।
जगद्वन्द्य शूलपाणे वर्णानां कारणं वदः ॥

भावार्थः देवी बोली, तीनों लोकों के स्वामी ! हे महेश ! हे प्राणप्रिय ! जगत द्वारा वंदित शूलपाणि ! आप कृपा करके मुझे वर्ण समूह के कराणों को बताएं ।

ईश्वरोवाच
कथयामि वरारोहे वर्णानां भेद्‌मुत्तमम् ।
न प्रकाश्यं महादेवी तव स्नेहात् सुभाषिणी ॥

भावार्थः महादेव बोले, हे सुंदरी ! तुम्हारे प्रति स्नेहाभिषिक्त होने के कारण ही मैं तुमसे वर्णसमूह के अतिश्रेष्ठ व गुप्त रहस्य को बता रहा हूं । तुम इसे किसी के भी सम्मुख उजागर मत करना ।

यज्‌ज्ञात्वा योगिनो यांति निर्गुणत्वं मम प्रिये ।
तच्छुणुष्व स्वरूपेण महायौवनगर्विते ॥
शब्दब्रह्मस्वरूपस्तद् आदिक्षांतं जगत्प्रभुः ।
विद्युत्जिह्वा करालास्या गर्जिनी धूम्रभैरवी ॥
कालरात्रिर्विदारी च महारौद्री भयंकरी ।
संहारिणी करालिनी ऊर्ध्वकेश्याग्रभैरवी ॥
भीमाक्षी डाकिनी रुद्रडाकिनी चंडिकेति च ।
एते वर्णाः स्वराः ज्ञेयाः कौलिनी व्यंजना श्रृणु ॥

भावार्थः हे प्रिये ! जिसको जानकर योगनिष्ठ तीनों तत्त्वों (सत्व, रज, तम) से परे जो स्थिति या रूप है उसे प्राप्त करत हैं, उसी का स्वरूप मैं तुम्हें बता रहा हूं । तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो । अ से क्ष तक जो स्वर व वर्ण हैं, वही सृष्टि के स्वामी सर्थात शब्दब्रह्म हैं । यथा विद्युतजिह्वा (अ), करालास्य (आ), गर्जिनी (इ), धूम्रभैरवी (ई), कालरात्रि (उ), विदारी (ऊ), महारौद्री (ऋ), भयंकरी (ऋ), संहारिणी (लृ), ऊर्ध्वकेशी (ए), उग्रभैरवी (ऐ), भीमाक्षी (ओ), डाकिनी (औ), रुद्राडाकिनी (अं), चंडिका (अः) ही स्वर और वर्णरुपा हैं । हे वामांगिनी ! अब तुम वर्णों का क्रम सुनो ।

कोधीशो वामनश्चंडो विकार्युन्मत्तभैरवः ।
ज्वालामुखो रक्तद्रंष्ट्राऽसितांगो बडवामुखः ॥
विद्युन्मुखो महाज्वालः कपाली भीषणो रुरुः ।
संहारी भैरवो दंडी बलिभूगुग्रशूलधृक् ॥
सिंहनादी कपर्दी च करालाग्निर्भयंकरः ।
बहुरूपी महाकालो जीवात्मा क्षतजोक्षितः ॥
बलभेदो रक्तश्च चंडीशो ज्वलनध्वजः ।
वृषध्वजो व्योमवक्त्रस्त्रैलोक्यग्रसनात्मकः ॥

भावार्थः क्रोधीश (क), वामन (ख), चंड (ग), विकारी (घ), उन्मत्त भैरव (ङ), ज्वालामुख (च), रक्तदंष्ट्र (छ), असितांग (ज), बडवामुख (झ), विद्युन्मुख (ञ), महाज्वाल (ट), कपाली (ठ)म भीषण (ड), रुरु (ढ), संहारी (ण), भैरव (त), दंडी (थ), बलिभुक् (द), उग्रशूलधृक् (ध), सिंहनादी (न), कपर्दी (प), करालाग्नि (फ), भयंकर (ब), बहुरूपी (भ), महाकाल (म), जीवात्मा (य), क्षतजोक्षित (र), बलभेद (ल), रक्त (व), चंडीश (श), ज्वलन ध्वज (ष), वृषध्वज (स), व्योमवक्त्र (ह), त्रैलोक्यग्रसनात्मक (क्ष) आदि व्यंजन वर्ण को जानो ।

एते च व्यंजना ज्ञेयाः कादिक्षांताः क्रमादिताः ।
अकारादिक्षकारांता वर्णास्तु शिवशक्तयः ॥
पंचाशच्च इमे वर्णा ब्रह्मरूपाः सनातनाः ।
येषां ज्ञानं बिना वामे सिद्धिर्नस्याद् गुरुस्तनी ॥
ते वर्णसागराः प्रोक्ता गुणत्रयमयाः शुभे ।
विद्युजिह्वामुखं कृत्वा चंडिकांतं नगात्मजे ॥

भावार्थः हे वामांगिनी ! इस प्रकार अकार से क्षकार तक स्वर वर्ण समूह शिव व शक्ति हैं । ये पचास वर्ण समूह ही ब्रह्मस्वरूप हैं । इनको जाने बिना सिद्धि नहीं मिलती । हे शुभे ! इन्हीं को त्रिगुण रूप वर्ण सागर कहते हैं । अ से विसर्ग तक अर्थात विद्युजिह्वा से चंडिका तक जितने भी वर्ण समूह हैं वे सत्वगुणी हैं ।

सत्वगुणमया वर्णा रजोगुणमयान श्रृणु ।
क्रोधीशाद्दाण्डपयन्ता व्यंजना राजसाः स्मृताः ॥
बलिभुग्वर्णमारंभ्य त्रैलोक्यग्रसनावधि ।
ज्ञेयोस्तमः स्वरूपांते तेभ्यो जातान् श्रृणु प्रिये ॥

भावार्थः हे पर्वतराज की पुत्री ! अब मैं रजोगुण से युक्त वर्ण समूह का वर्णन करता हूं । तुम ध्यान से सुनो । क से ध (क्रोधीश से दंडी) तक के वर्ण रजोगुणी हैं । इसी तरह द से क्ष (बलिभुक् से त्रैलोक्य ग्रसनात्मक) तक के वर्ण तमोगुणी हैं । हे प्राणप्रिये ! अब इनकी उत्पत्ति का वर्णन करता हूं । सुनो !

गुशब्दश्चांधकारः स्याद्रशब्दस्तन्निरोधकृत् ।
अंधकारविरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते ॥

भावार्थः गु का तात्पर्य अंधकार है और रु का तात्पर्य अंधकार का निरोध करना है । अर्थात जो अज्ञानरूपी अंधकार का निरोध कर दे या नाश कर दे वही गुरु है ।

गुकारः सिद्धिदः प्रोक्तो रकारः पापहारकः ।
उकारस्तु भवेद्विष्णुस्त्रित्रयात्मा गुरुः स्वयम् ॥

भावार्थः एक अन्य अर्थ इस प्रकार है-गु अर्थात सिद्धिदाता, र अर्थात पापहर्ता, उ अर्थात विष्णु स्वरूप । आशय यह है कि गुरु सिद्धिदाता, पापहर्ता और विष्णुरूप होता है ।

आदावसौ जायते च शब्दब्रह्म सनातनः ।
वसुजिह्वा कालरात्र्या रुद्रडाकिन्यलंकृता ।
विषबीजं श्रुतिमुखं ध्रुवं हालाहल प्रिये ॥

भावार्थः हे देवी ! प्रणव (ॐ) तीन वर्ण समूहों वसुजिह्वा (आ कार), कालरात्रि (उ कार) और रुद्ररूप (ॐ) से बना है । हे देवी ! यह शब्द ब्रह्मरूप बीजमंत्र, माया नाशक व श्रुति (वेदों) का मुख होने से जागतिक प्रपंचों क्रे लिए विष समान है ।

चंडीशः क्षतजारूढो धूम्रभैरव्यलंकृतः ।
नादविंदु समायुक्तं लक्ष्मीबीजं प्रकीर्तितम् ॥

भावार्थः हे देवी ! श्रीं मंत्र का विन्यास कैसे हुआ? अब यह सुनो । चंडीश (श कार), क्षतज (र कार) में धूम्रभैरवी (ई कार) को मिलाकर उस पर नादबिंदु अंकित करने से लक्ष्मी का बीजमंत्र (श्रीं) बना है । ऐसा तंत्रज्ञ कहते हैं ।

क्रोधीशं क्षतजारूढं धूम्रभैरव्यलंकृतम् ।
नादविंदुयुतं देवी नामबीजं प्रकीर्तितम् ॥
क्रोधीशो बलभृद् बलिभुग् धूम्रभैरवीनादविंदुभिः ।
त्रिमुर्तिमन्मथः कामबीजं त्रैलोक्यमोहनम् ॥

भावार्थः कालिका बीजमंत्र ह्नीं की रचना क्रोधीश (क कार), क्षतज (र कार), धूम्रभैरवी (ई कार) को मिलाकर उस पर नादबिंदु अंकित करने से हुई है । इसी प्रकार क्रोधीश (क कार), बलभृद् (ल कार) में धूम्रभैरवी (ई कार) को मिलाकर उस पर नादबिंदु अंकित करने से कामबीज क्लीं बना है जो तीनों लोकों को भी मोहित करने की क्षमता से युक्त है ।

क्षतजस्थो व्योमवक्त्रो धूम्रभैरव्यलंकृतः ।
नादविंदुसुशोभाड्‌यं मायालज्जाद्वयं स्मृतम् ॥

भावार्थः हे देवी ! व्योमवक्त्र (ह कार), क्षतज (रकार) में द धूम्रभैरवी (ई कार) को मिलाकर उस पर नादबिंदु अंकित कर देने से ह्नीं मंत्र बनता है । इसे माया बीज या लज्जा बीज मंत्र भी कहा जाता है ।

व्योमस्यं च विदारीस्थं नादविंदु विराजितम् ।
कूर्चकालं क्रोधबीजं जानीहि वीरवंदिते ॥

भावार्थः व्योम (ह कार) विदारी (उ कार) वर्णों को मिलाकर उस पर नादबिंदु अंकित करने से हुं क्रोधबीज मंत्र बनता है । हे देवी ! यह बीजमंत्र काल को भी निष्प्रभावी कर देता है ।

व्योमस्यः कालरात्र्याड्‌यो वर्मविंद्विंदु संयुतः ।
कथितं वचनं बीजं कुलाचार प्रियेऽमले ॥

भावार्थः व्योम (ह कार), कालरात्रि (ऊ कार) वर्णों को मिलाकर चंद्रबिंदु अंकित करने से हूं बीजमंत्र बनता है । इस वायु बीज मंत्र भी कहते हैं ।

व्योमस्यं क्षतजारूढं डाकिन्या नादविंदुभिः ।
ज्योतिर्मन्त्रं समाख्यातं महापातकनाशनम् ॥

भावार्थः व्योम (ह कार), क्षतज (र कार) और डाकिनी (औ कार) को मिलाकर  नादबिंदु अंकित करने से ह्नौं (ज्योतिर्मंत्र) बनता है । यह बीजमंत्र सभी प्रकार के पापों का नाश करनेवाला है ।

नादविंदु समायुक्तां समादायोग्रभैरवीम् ।
भैतिकं वाग्भवं बीजं विद्धि सारस्वतं प्रिये ॥

भावार्थः हे प्राणवल्लभे ! उग्रभैरवी (ऐ कार) में नादबिंदु मिलाने से ऐं बीजमंत्र बनता है । यह सरस्वती का बीजमंत्र है ।

प्रलयाग्निर्महाजालः ख्यात अस्त्रमनुः शिवे ।
रक्तक्रोधीशभीमाख्यो अंकुशोऽयं नादविंदुमान् ॥

भावार्थः हे देवी ! प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रभावी क्रौं बीजमंत्र रक्त क्रोधीश (क्रौ) में नादबिंदु का अंकन करने से बनता है ।

द्वि ठः शिवो वन्हिजाया स्वाहा ज्वलनवल्लभा ।
संयुक्तं धूम्रभैरव्या रक्तस्थं बलिभुक्म् ।
नादविंदुसमायुक्तं किंकिणीबीजमुत्तमम् ॥

भावार्थः ‘स्वाहा’ मंत्रोच्चारण के साथ ही अग्नि में हवि (हवन सामग्री) डाला जाता है । इसीलिए ‘स्वाहा’ अग्नि की भार्या भै है । धूम्रभैरवी (ई कार) और बलि भुक् (द कार) को मिंलाकर नादबिंदु अंकित करने से श्रेष्ठ किंकणी बीज मंत्र द्नीं बनता है ।

नादविंदु समायुक्तं रक्तस्थं बलिभोजनम् ।
करालास्यासनोपेतं  विशिकाख्यं महामनुम् ॥

भावार्थः नादबिंदु व रेफ से युक्त बलि भोजन (द्रं) में करालास्या (आ) मिला देने से द्रां बीजमंत्र बनता है । इसी को विशिकाख्य महामंत्र भी कहते हैं ।

धूमोज्ज्वल करालाग्नि ऊर्ध्वकेशींदुविंदुभिः ।
युगान्तकारकं बीजं वीरपत्नि प्रकाशितम् ॥

भावार्थः हे वीरपत्नी ! धूम्रोज्ज्वल करालाग्नि (फ कार) में जब ऊर्ध्वकेशी (ए कार) चंद्रबिंदु से युक्त हो तो फं बीजमंत्र बनता है ।

विदार्या नेक्षितो गुह्‌यो बलिभुक् क्षतजोक्षितः ।
नादविंदु समायुक्तो विज्ञेयः पिशिताशनः ॥

भावार्थः हे देवी ! बलिभुक् (द) तथा क्षतजोक्षित (र) में उकार व नादबिंदु अंकित करने से भीषण बीज मंत्र द्रूं बवता है ।

संहारिणा स्थितंचोर्द्धे केशिनंतु कपर्दिनम् ।
नादविंदु समायुक्तं बीजं वैतालिंक स्मृतम् ॥

भावार्थः संहारिणी (लृकार) और ऊर्ध्वकेशी (ए कार) से समन्वित कपर्दी (प कार) में नाद बिंदु मिला देने बैतालिक बीजमंत्र पृं बनता है ।

सनादविंदु क्रोधीशं गुह्‌ये संहारिणी स्थितम् ।
कंपिनीबीजमित्युक्तं चंडिकाख्यं मनोहरम् ॥

भावार्थः क्रोधीश (क कार) नादबिंदु युक्त हो और उसके नीचे संहारिणी (लृ) हो तो मनोहारी चंडिकाख्य कंपिनी बीजमंत्र कृं बनता है ।

कपर्दिनं समादाय क्षतजोक्षित संस्थितम् ।
संयुक्तं धूम्रभैरव्या ध्वांगक्षेऽयं नादविंदुमान् ॥

भावार्थः कपर्दी (प कार), क्षतजोक्षित (र कार) और धूम्रभैरवी (ई कार) को मिलाकरं नादबिंदु अंकित करने से प्रीं बीजमंत्र बनता है ।

कपालीद्वयमादाय महाकालेन मंडितम् ।
सनाद स्तनमित्युक्तं चंडिकाख्यं पयोधरम् ॥

भावार्थः दो कापाली ( ठ ठ), महाव्याल (म कार) से युक्त हो और उन पर नादबिंदु अंकित कर दिया जाए तो चंडिका का स्तनस्वरूप मंत्र ठं ठं बनता है ।

करालाग्निस्थितो धूमध्वजो गुह्‌ये सविंदुमान् ।
संयुक्तो धूम्रभैरव्यास्मृता फेत्कारिणी प्रिये ॥

भावार्थः करालाग्नि (फ कार), धूमध्वज (स कार) और धूम्रभैरवी (ई कार) को मिलाकर रेफयुक्त नादबिंदु अंकित करने से फेत्कारिणी मंत्र स्फ्रीं बनता है ।

क्षतजो क्षितमारूढं नादविंदु समन्वितम् ।
विदारीभूषितं देवी बीजं वैवस्वतात्मकम् ॥

भावार्थः हे देवी ! क्षतजोक्षित (र कार), विदारी (उ कार) को मिलाकर नाद बिंदु अंकित करने से रूं बीजमंत्र बनता है । यह मंत्र सुर्य का स्वरूप माना गया है ।

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Last Updated : December 28, 2013

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