अध्याय तेरहवाँ - श्लोक ८१ से १००

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


विषम घरमें वेध नहीं होता और नतोन्नत ( ऊंचे नीचे ) में वेध नहीं होता. घरके दक्षिणभागमें कूप दोषका दाता माना है ॥८१॥

होय तो सन्तानकी हानि, भूमिका नाश अथवा अदभुत रोग होता है. दीपक और पंक्तिका दर्शन हो वा सम भूमियोंके दूर हो तो ॥८२॥

संपूर्ण घर चाहै पूर्वोक्त दिशाओंमें स्थित हो वेधको प्राप्त नहीं होत. पीपल पिलखन वट और गुलर ये चारो वृक्ष क्रमसे ॥८३॥

पूर्व आदि दिशाओंमें होंय तो वेध होता है यह पूर्व समयके आचार्य जानते हैं. राजवृक्ष निंब आम्र और केला ॥८४॥

ये वृक्ष पूर्व आदि दिशाके क्रमसे होंय तो वेध करते हैं, आग्नेय आदि विदिशाओंके क्रमसे दूधवाले वृक्ष और कदम्ब ॥८५॥

कण्टक वृक्ष और केलेके स्तम्ब होंय तो ये फ़लके वृक्ष वेध करते हैं पूर्व दिशाके भागमें विवर ( छिद्र ) हो और दक्षिणमें मठ मन्दिर हो ॥८६॥

पश्चिममें कमलों सहित जल हो, उत्तरमें खाई हो, पूर्वमें फ़लवाले वृक्ष हों और दक्षिणमें दूधके वृक्ष हों ॥८७॥

पश्चिममें जलमें उत्पन्न वृक्ष हों ये सब शत्रुओंसे भयको देते हैं दूधवाले अर्थको नष्ट करते हैं. फ़लवाले दोष्को देते हैं, दश दण्डपर्यंत पुरके वासियोंको पीडा देते हैं ॥८८॥

कलह नेत्ररोग व्याधि शोक और धनके नाशको करते हैं ॥८९॥

बीथिके अन्तर ( मध्यम ) में दोष होता है, मार्गके मध्यमें दोष नहीं होता विदिशाओंमें स्थित हो और दूरपर होय तो सदैव वेध नहीं है ॥९०॥

नीचेके स्थानमें वेध होता है, कोणमें भित्तिके मध्यमें दोष नहीं और न चैत्यके मध्यमें दोष होता है ॥९१॥

कमलोंके मध्यमें और बाणघातकमें दोष नहीं है, विकोणोंमें और न फ़लके वृक्षमें दोष है ॥९२॥

नीच जातियोंमें दोष नहें है, न भग्न ( टूटे ) मन्दिरमें दोष है, चौराहेके अन्तमें दोष नहीं, न जीर्ण गृहोंके मध्यमें दोष है ॥९३॥

अत्यन्त ऊंचा और अत्यन्त नीचा और मध्यमें विषम लंघन जिसमें हो और मध्यमें जहां जल और पर्वत हो इनमें भी वेधका दोष नहीं होता ॥९४॥

जिस मन्दिरके मध्यमें बेल आम अनारके वृक्ष लगाये हुए हों उसमें भी वेधका दोष नहीं हैं; यह सत्य बात ब्रह्माके मुखसे सुनी है ॥९५॥

यदि दोष हो-छठे वर्षमें स्वामी मरता है, नववें वर्षमें लक्ष्मीसे रहित होता है, चौथे वर्षमें पुत्रका नाश होता है और आठवें वर्षमें सर्वनाश होता है ॥९६॥

एक पक्षसे एक माससे तीन ऋतुओंसे घर शुभ वा अशुभ फ़लको देता है यही कुशल है, इससे परे बुध्दिमानोंका उसके विषे विचार नहीं है ॥९७॥

जिस मन्दिर वा किलेमें हस्तीका स्थान दक्षिणभागमें हो और पूर्व पश्चिम उत्तरमें सिंहका स्थान होय तो मरण करता है और पुत्रोंको महान दोषको देता है ॥९८॥

पूर्वमें वृष और जल वा ध्वजा होय तो महान दोषको करते हैं, यदि कण्ठीरव नामके घर दक्षिण और पश्चिम दिशाओंमे होय ॥९९॥

पूर्व उत्तरमें ध्वजा होय तो बैलोंको महापीडा करनेवाले कहे हैं , जबीर, पुष्पके वृक्ष, पनस, अनार ॥१००॥

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Last Updated : January 20, 2012

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