अध्याय साँतवा - श्लोक २१ से ४०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


स्थानका पीठपर द्वार न करै और कोणोंमें तो विशेषकर न करै. अब बारहवें प्रकारको कहते हैं- मार्गशिर आदि तीन तीन महीनोंमें क्रमसे ॥२१॥

पूर्व दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशामें राहु वसता है. द्वारमें वहिका भय और स्तम्भको राहुके मुखकी दिशामें गाडनेसे वंशका नाश होता है ॥२२॥

अब तेरहवें प्रकारको कहते हैं- राक्षस ( नैऋति ) कुबेर ( उत्तर ) अग्नि जल ( पश्चिम ) ईशान याम्य वायव्य इन दिशाओंमें आदित्यवारसे लेकर राहु वसता है, आठों दिशाओंके चक्रमें वह राहु गृहके द्वार और गमनके प्रारंभमें वर्जित है ॥२३॥

अब चौदहवें प्रकारको कहते हैं-पहिला गृह ध्रुव कहा है वह सब द्वारोंसे विवर्जित होता है, पूर्वदिशामें जिसका द्वार हो वह धान्य कहाता है और दक्षिणमें जिसका द्वार हो वह जयसंज्ञक गृह कहाता है ॥२४॥

पूर्व दक्षिणमें द्वार होय तो नन्द गृह होता है, पश्चिममें होय तो खर होता है, पूर्व पश्चिममें होय तो कान्त, पश्चिम दक्षिणमें होय तो मनोरम होता है ॥२५॥

उत्तरमें होय तो समुख होता है और उत्तरमें दुर्मुखनामका गृह वर्जित है और उत्तर दक्षिणके क्रुरसंज्ञक गृहमें विपत्ती होती है॥२६॥

पश्चिम द्वार धनद गृहमें वर्जित है और उत्तर पश्चिममें गृह होय तो क्षय होता है आक्रन्द नामके घरमें दक्षिणका और विपुल नामकें घरमें पूर्वका द्वार वर्जित है ॥२७॥

चार जिसमें द्वार हों ऐसा विजय नामका घर जो चारो तरफ़ अलिन्दोंसे युक्त है वह सर्वतोभद्रनामका गृह राजाओंको सिध्दि करनेवाला कहा है ॥२८॥

अब पन्द्रहवें प्रकारको कहते हैं-अब उस द्बारचक्रको कहताहूं जो पहिले ब्रम्हाने कहा है कि, सूर्यके नक्षत्रसे चार नक्षत्र द्वारके ऊपर रक्खै ॥२९॥

दो दो नक्षत्र कोणमें रक्खे और दो दो नक्षत्र दोनों शाखाओंमें रक्खै और तीन नक्षत्र निचलें भागमें रक्खे और चार नक्षत्र मध्यमें रक्खे ॥३०॥

ऊर्ध्वके नक्षत्रोंमें द्बार बनवावे तो राज्य होताहै, कोणके नक्षत्रोंमें उध्दासन ( निकास ), शाखाके नक्षत्रमें लक्ष्मीकी प्राप्ति और ध्वजाके नक्षत्रोंमें मरण होता है ॥३१॥

मध्यके नक्षत्रोंमें सुख होता है यह चक्र बुध्दिमान् मनुष्योंको सदा विदारने योग्य है-अश्विनी उत्तरा तिष्य ( विशाखा ) श्रवण मृगशिर ये नक्षत्र शुभ हैं, स्वाती रेवती रोहिणी द्वार शाखाके स्थापनमें शुभ होते हैं ॥३२॥

पंचमी धनकी दाता होती है और सप्तमी अष्टमी नवमी भी शुभ होती हैं प्रतिपदामें द्वार कभी न करै, करै तो दु:ख होता है, द्वितीयामें द्रव्यकी हानि और पशु पुत्रका नाश होता है ॥३३॥

तृतीया रोगकी दात्री चतुर्थी भगको करती है, षष्टी कुलका नाश और दशमी धनका नाश करती है ॥३४॥

अमावास्या विरोधको करती है इससे इसमें शाखाका आरोप न करे, केन्द्र और त्रिकोण ( नौवां पांचवां ) इनमें शुभग्रह होयं और ३।११।६ स्थानोंमें पापग्रह होयं ॥३५॥

द्यून ( सातवें ) दशवें ये ग्रह शुध्द होंय तो द्वारकी शाखाका स्थापन शुभ वारमें शुभ होता है और पंचक त्रुपुष्कर योगमें शुभ नहीं, अग्नि जिसका स्वामी हो ऐसे नक्षत्र ( कृत्तिका ) में और सोमवारको द्वारशाखाका स्थापन न करे ॥३६॥

वास्तुपुरुषका दिक्पाल और क्षेत्रके स्वामियोंको प्रणाम करके उसके अनन्तर द्बार शाखाका स्थापन शुभशकुनको देखकर करे अन्यथा वर्जदे ॥३७॥

और सुखके अभिलाषी मनुष्य कुड्य ( भित्ति ) को छेदकर द्वारको कदाचित न बनवावे, कृत्तिका भग ( पूर्वाफ़ा० ) अनुराधा विशाखा पुनसु ॥३८॥

पुष्य हस्त आर्दा इन नक्षत्रोंको क्रमसे पूर्वदिशामें रक्खे, अनुराधा विशाखा रेवती भरणी उत्तराषाढा अश्विनी चित्रा ये नक्षत्र क्रमसे दक्षिणमें स्थित हैं मघा प्रौष्ठपद अर्य्यमा मांसन्नदैवत ( मूल ) ॥३९॥४०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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