अध्याय दूसरा - श्लोक १६१ से १८०

देवताओंके शिल्पी विश्वकर्माने, देवगणोंके निवासके लिए जो वास्तुशास्त्र रचा, ये वही ’ विश्वकर्मप्रकाश ’ वास्तुशास्त्र है ।


व्याससे सोलहवे भागका जो प्रमाण वह सब गृहोंको मिति ( प्रमाण ) कही है यह उन गृहोंका प्रमाण है, जो पक्की ईटोके हों काष्ठकी ईटोंके कदाचित नही ॥१६१॥

राजा और सेनापतिके जो घर उसके द्वारका प्रमाण वुध्दिमानोंने १८८ एकसौ अट्टासी अंगुलका कहा है ॥१६२॥

ब्राम्हण आदिकोंके द्वारका प्रमाण २७ सत्ताईस अंगुलका कहा है, द्वारका प्रमाण जो कहा है उससे तिगुनी उँचाई शास्त्रमें कही है ॥१६३॥

ऊँचाईके हाथोंकी जो संख्या है उतनेही प्रमाणके अंगुल दोनों शाखाओंमें अधिक बनवावे और बारह अंगुल मिलावे ॥१६४॥

उँचाईसे सातगुनी दशा पृथुता ( लम्बाई चौडाई ) कही है और नौगुनेमें ८० अस्सीवां जो अंश उसे भाग और तत कहते हैं ॥१६५॥

दशवे अंशसे हीन उसका अग्र कहा है; अब स्तम्भोंके प्रमाणको कहते है - जिसमें ४ कोण हों उस स्तम्भको रुचक और जिसमें आठ कोण होंउसे वज्र कहते है ॥१६६॥

जिसमें १६ कोण हों वह व्दिवज्र, जिसमें ३२ बत्तीस कोण हों उसे प्रलीनक कहते हैं जो समवृत्त ( गोल ) हो उसको वृत्त नामका स्तम्भ पण्डितोंने कहा है ॥१६७॥

स्तम्भके नौ प्रकार बांटकर उद्वहन घटको बनबाने अर्थात स्तम्भके पाससे काष्ठोंको लगावे और पद्म उत्तरौष्ठकोभी भागसे ऊन भागसे बनवाने स्तम्भके नीचेके काष्ठको पद्म उत्तरोष्ठ कहते हैं ॥१६८॥ भारकी तुलाके ऊपर जिनकी तुला ऊपर हो उनकी स्तम्भके समान अधिकता होती है और वे एक एक पाद ऊन होती हैं ॥१६९॥

निषिद्वसे रहित जो अलिंद उसके समान जो घर है वह सर्वतोभद्र अर्थात सब प्रकारसे मांगलीक होता है, राजा और देवताओंके समूहोंका जो घर है वह चार दरवाजोंका बनवाना ॥१७०॥

अब दो शाला आदिके गृहोंको कहते है-पहिली शाला दक्षिणमें बनवानी फ़िर दूसरी पश्चिममें, तीसरी उत्तरमें और चौथी पूर्व पश्चिममें बनवानी ॥१७१॥

जिस घरमें दक्षिण दिशामें दुर्मुखका चिन्ह हो और पूर्वमें खरका चिन्ह हो वह घर वातनामका होता है, वह वातरोगका प्रदाता शास्त्रमें कहा है ॥१७२॥

जो घर दक्षिणमें दुर्मुख हो और पश्चिममें धान्यसंज्ञक हो वह दो शालाका घर सिध्दार्थ नामका होता है और वह मनुष्योंकी सब सिध्दियोंको करता है ॥१७३॥

जो पश्चिममें धान्य नामका हो और उत्तरमें जयसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों उसे मयसूय कहते हैं. वह मृत्यु और नाशका दाता होता है ॥१७४॥

जो पूर्बमें खरनामका हो और उत्तरमें धान्यसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों वह दण्डनामका होता है. वह दण्डको बारम्बार देता है ॥१७५॥

जो दक्षिणमें दुर्मुख हो और उत्तरमें जयसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों वह वातनामका होता है उसमें बंधु और धनका नाश होता है ॥१७६॥

जो पूर्वदिशामें खरनामका हो और पश्चिममें धान्यसंज्ञक हो और जिसमें दो शाला हों उस गृहको चुल्की कहते है वह पशुओंकी वृध्दि और धनको देता है ॥१७७॥

जो घर दक्षिण भागमें विपक्षनामका हो और पश्चिममें हो और जिसमें दो शाला हों वह घर शोभननामका होता है वह धन और धान्य को देता है ॥१७८॥

जो दक्षिण भागमें और पश्चिम भागमें विजयनामका हो और जिसमें दो शाला हों उस घरको कुंभ कहते हैं वह पुत्र और स्त्री आदिसे युक्त रहता है ॥१७९॥

जो पूर्वदुशामें धननामका हो और पश्चिममें धान्यनामका हो और जिसमें दो शाला हों वह घर नंदनामका होता है वह धनको देता है और शोभननामका होता है ॥१८०॥

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Last Updated : January 20, 2012

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