कृष्णदास

भक्तो और महात्माओंके चरित्र मनन करनेसे हृदयमे पवित्र भावोंकी स्फूर्ति होती है ।


द्रवति शिखरवृन्देऽचच्चले वेणुनादै --

र्दिशि दिशि विसरन्तीर्निर्झरापः समीक्ष्य ।

तृषितखगमृगाली गन्तुमुस्का जडाङ्गैः

स्वयमपि सविधाप्ता नैव पातुं समर्था ॥

( गोविन्दलीलामृत्तम् )

श्रीनवद्वीपमें श्रीचैतन्य महाप्रभुने प्रेमकी जो महान् सरिता बहायी, उसी दिव्य प्रेमसलिलामें अपनेको निमज्जितकर उसमें अपनेको सर्वथा डुबा देने तथा उसीमें लय हो जानेके लिये उस समय अनेकों महापुरुषोंने जन्म ग्रहण किया । इन्हीं परम सौभाग्यसम्पन्न प्रेमी महापुरुषोंमें एक थे -- बँगला ' चैतन्य - चरितामृत ' के रचयिता प्रसिद्ध वैष्णवकवि भक्तराज श्रीकृष्णदासजी । ये बर्दवान जिलेके झामटपुर नामक छोटे गाँवके वैद्यवंशमें अवतरित हुए थे । इन्होंने बालकपनसे ही संस्कृत भाषा पढ़ी एवं उसमें धुरन्धर विद्वान् बन गये । थे शैशवसे ही अत्यन्त धर्मानुरागी थे । इनके माता - पिता श्रीचैतन्यमहाप्रभुके भक्त थे एवं ये भी बालकपनसे ही श्रीचैतन्यमहाप्रभुके भक्त थे एवं ये भी बालकपनसे ही श्रीचैतन्यके गुणोंको सुन चैतन्यभक्त बन गये थे । ज्यों - ज्यों इनकी उम्न बढ़ी, इनका भक्तिभाव एवं विषयवैराग्य भी बढ़ता गया । रात - दिन ये श्रीकृष्णनामजपमें ही व्यतीत करते । एक दिन इन्हें स्वप्नमें श्रीनित्यानन्दजीने दर्शन दिये तथा संसाराश्रम छोड़नेकी अनुमति दी । तभी कृष्णदास भगवानकी प्रेमलीलास्थली वृन्दावनकी ओर चल पड़े ।

कृष्णदासजीके जन्म लेनेके समयसे पूर्व ही श्रीचैतन्य लीलासंवरण कर चुके थे । अतः ये परम वीतरागी श्रीचैतन्यके प्रिय शिष्य रघुनाथदासजीसे दीक्षा ले इन्होंने अपना अवशिष्ट समय प्रेमभक्ति - शिक्षा, शास्त्रोंकी आलोचना, महाप्रभु श्रीचैतन्यदेवके पावन चरित्रके अनुशीलन एवं श्रीकृष्णनामजपमें ही व्यतीत किया ।

श्रीरघुनाथदासजी श्रीचैतन्यदेवके अत्यन्त प्रिय शिष्योंमेंसे थे । महाप्रभुकी अन्तिम अवस्थामें उनके पास श्रीस्वरुप गोस्वामी एवं रघुनाथदास ही रहते तथा इनकी सेवा शुश्रूषा करते थे । महाप्रभुके दिव्य महाभावकी उच्च अवस्था, उनकी अपूर्व प्रेममयी स्थिति एवं उनके मनःपटलपर उठती श्रीकृष्णप्रेमकी दिव्य तरङ्गोंको श्रीस्वरुप गोस्वामी उनकी कृपासे जान लिया करते थे । वे यह सब इनको बता दिया करते थे -- अतः श्रीरघुनाथदासजी श्रीचैतन्यदेवके प्रेमरहस्यके अपने प्रिय शिष्य कृष्णदासपर प्रकट किया । इस प्रकार गुरुकृपासे इन्हें प्रेम - रहस्यका दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ ।

श्रीचैतन्यदेवकी अन्तरङ्ग लीलाओंका प्रकाश श्रीचैतन्यके लीलासंवरणके पश्चात् वृन्दावनमें किसी - किसीको ही था । उनके सभी भक्तोंको चैतन्यप्रेमरहस्यका ज्ञान हो, इसलिये श्रीकृष्णदासजीने अपने अन्तिम समयमें बँगला भाषामें अत्यन्त ही सुललित छन्दोंमें ' श्रीचैतन्यचरितामृत ' नामक काव्यग्रन्थ निर्माण किया । कहते हैं उस समय वे अत्यन्त ही वृद्ध हो चुके थे । उनका समस्त अङ्ग जर्जर था । न आँखोंसे देखा जाता था न कानोंसे पूरी तरह सुना जाता । मुखसे उच्चारण भी पूरा नहीं होता था । किंतु फिर भी इन्होंने देखा जाता था न कानोंसे पूरी तरह सुना जाता । मुखसे उच्चारण भी पूरा नहीं होता था । किंतु फिर भी इन्होंने ग्रन्थ लिखा । इनसे किसीने पूछा भी कि ' आप इसे कैसे लिखवा रहे हैं ?' इन्होंने उत्तर दिया कि ' मेरी क्या सामर्थ्य है जो इस ग्रन्थको लिखूँ; इसे तो साक्षात् मदनगोपाल लिखा रहे हैं ?'

इनके श्रीचैतन्यचरितामृत ग्रन्थमें प्रेम - रहस्यकी अत्यन्त गोपनीय बातोंका अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है । और सत्य ही इसे मन लगाकर पढ़नेसे अन्तःकरणमें दिव्य श्रीकृष्णप्रेमका उदय होना सम्भव है । भक्तिसाहित्यका यह सर्वोत्तम ग्रन्थ है । उत्तर भारतमें ' रामचरितमानस ' का जैसा सम्मान है, वैसा ही बंगालमें ' श्रीचैतन्यचरितामृत ' का है ।

इसके अतिरिक्त इन्होंने संस्कृतभाषामें वैष्णवाष्टक, गोविन्दलीलामृत, कृष्णकर्णामृतकी सारंगरंगदा टीका की है । इनके ग्रन्थोंसे झलकता है कि ये संस्कृतके भी असाधारण विद्वान् थे ।

भावुक भक्तोंमें यह प्रचलित है कि ये श्रीराधारानीकी किसी मञ्जरीके अवतार थे । इन्होंने श्रीचैतन्यचरितामृतमें एक ऐसा प्रयोग किया ऐ जिसे तत्कालीन वैयाकरण खोजनेपर भी किसी व्याकरणमें नहीं पा सके । कहते हैं उस समय उनमेंसे किसी एक प्रमुखने इनकी तीव्र आलोचना की तो श्रीराधारानीने स्वप्नमें उसे बताया कि ये मेरी मञ्जरीके अवतार हैं - ये इतनी बड़ी भूल नहीं कर सकते । आप उस व्याकरणको देखिये, उसमें इस प्रकारका प्रयोग है । उन विद्वानने जब वह व्याकरण देखा, तब सत्य ही उन्हें वद प्रयोग मिल गया ।

ये अत्यन्त उच्चकोटिके प्रेमी, अद्वितीय वैरागी एवं महान् भक्त थे । ऐसे भक्तोंसे निश्चय जगतका कल्याण होता रहा है एवं होता रहेगा ।

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Last Updated : April 28, 2009

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