लीला गान - जो रस बरस रह्यो बरसान...

’लीलागान’में भगवल्लीकी मनोमोहिनी मनको लुभाती है ।


जो रस बरस रह्यो बरसाने सो रस तीन लोकमें नाहिं ।

तीन लोकमें नाहिं वो रस वैकुण्ठहूमें नाहिं ॥ टेक॥

सँकरी गली बनी पर्वतकी, दधि लै चली कुमारि कीरतिकी ।

आगे गाय चरै गिरधरकी, दीने सखा सिखाय ॥ जो रस ॥

दैजा दान कुमरि मोहनकौं, तब छोडूँ तेरे गोहनकौं ।

राज यहाँ वनमें गिरिधरको, दान लइँगे धाय ॥ जो रस ॥

इनके संग सखी मदमाती, उनके संग सखा उत्पाती ।

घेरि लई ग्वालिन रसमाती, मनमें अति हरषाय ॥ जो रस॥

सुर तैंतीसनकी मति बौरी, भजिकै चले बिरजकी ओरी ।

देखि देखि या ब्रजकी खोरी, ब्रह्मादिक ललचाय ॥ जो रस ॥

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Last Updated : January 22, 2014

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