सुखमनी साहिब - अष्टपदी ३

हे पवित्र काव्य म्हणजे शिखांचे पांचवे धर्मगुरू श्री गुरू अरजनदेवजी ह्यांची ही रचना.
दहा ओळींचे एक पद, आठ पदांची एक अष्टपदी व चोविस अष्टपदींचे सुखमनी साहिब हे काव्य बनलेले आहे.


( गुरु ग्रंथ साहिब पान २६५)

बहु सासत्र बहु सिम्रिता । पेखे सरब ढढोलि ॥
पूजसि नाही हरि हरे । नानक नाम अमोल ॥१॥

पद १ ले

जाप ताप गिआन सभि धिआन ।
खट सासत्र सिम्रिति वखिआन ॥
जोग अभिआस करम ध्रम किरिआ ।
सगल तिआगि बन मधे फिरिआ ॥
अनिक प्रकार कीए बहु जतना ।
पुंन दान होमे बहु रतना ॥
सरीरु कटाइ होमे बहु रतना ॥
वरत नेम करै बहु भाती ॥
नही तुलि राम नाम बीचार ।
नानक गुरमुखि नामु जपीऐ एक बार ॥१॥

पद २ रे

नउ खंड प्रिथमी फिरै चिरु जीवै ।
महा उदासु तपीसरु थीवै ॥
अगनि माहि होमत परान ।
कनिक अस्व हैवर भूमि दान ॥
निउली करम करै बहु आसन ।
जैन मारग संजम अति साधन ॥
निमख निमख करि सरीरु कटावै ।
तउ भी हउमै मैलु न जावै ॥
नानक गुरमुखि नामु जपत गति पाहि ॥२॥

पद ३ रे

मन कामना तीरथ देह छुतै ।
गरबु गुमानु न मन ते हुटै ॥
सोच करै दिनसु अरु राइ ।
मन की मैलु न तन ते जाति ॥
इसु देही कउ बहु साधना करै ।
मन ते कबहू न  बिखिआ टरै ॥
जलि धोवै बहु देह अनीति ।
सुध कहा होइ काची भीति ॥
मन हरि के नाम की महिमा ऊच ।
नानक नामि उधरे पतित बहु मूच ॥३॥

पद ४ थे

बहुतु सिआणप जम का भउ बिआपै ।
अनिक जतन करि त्रिसन ना ध्रापै ॥
भेख अनेक अगनि नही बुझै ।
कोटि उपाव दरगह नही सिझै ॥
छूटसि नाही ऊभ पइआलि ।
मोहि बिआपहि आइआ जालि ॥
अवर करतूति सगली जमु डानै ।
गोविंद भजन बिनु तिलु नही मानै ॥
हरि का नामु जपत दुखु जाइ ।
नानक बोले सहजि सुभाइ ॥४॥

पद ५ वे

चारि पदारथ जे को मागै ।
साध जना की सेवा लगौ ॥
जे को आपुना दूखु मिटावै ।
हरि हरि नामु रिदै सद गावै ॥
जे को आपुना दूखु मिटावै ।
हरि हरि नामु रिदै सद गावै ।
जे को अपुनी सोभा लोरै ।
साध संगि इह हउमै छोरै ॥
जे को जनम मरण ते डरै ।
साध जना की सरनी परै ॥
जिसु जन कउ प्रभ दरस पिआसा ।
नानक ता कै बलि बलि जासा ॥५॥

पद ६ वे

सगल पुरख महि पुरखु प्रधानु ।
साध संगि जा का मिटै अभिमानु ॥
आपस कउ जो जाणै नीचा ।
सोऊ गनीऐ सभ ते ऊचा ॥
जा का मनु होइ सगल की रीना ।
हरि हरि नामु तिनि घटि घटि चीना ॥
मन अपुने ते बुरा मिटाना ।
पेखै सगल स्त्रिसटि साजना ॥
सूख दूख जन सम द्रिसटेता ।
नानक पाप पुंन नही लेपा ॥६॥

पद ७ वे

निरधन कउ धनु तेरो नाउ ।
निथावे कउ तेरा थाउ ॥
निमाने कउ प्रभ तेरो मानु ।
सगल घटा कउ देवहु दानु ॥
करन करावनहार सुआमी ।
सगल घटा के अंतरजामी ॥
अपनी गति मिति जानहु आपे ।
आपन संगि आपि प्रभ राते ॥
तुमरी उसतति तुम ते होइ ।
नानक अवरु न जानसि कोइ ॥७॥

पद ८ वे

सरब धरम महि स्त्रेसट धरमु ।
हरि को नामु जपि निरमल करमु ॥
सगल क्रिआ महि ऊतम किरिआ ।
साध संगि दुरमति मलु हिरिआ ॥
सगल उदम महि उदमु भला ।
हरि का नामु जपहु जीअ सदा ॥
सगल बानी महि अंम्रित बानी ।
हरि को जसु सुनि रसन बखानी ॥
सगल थान ते ओहु ऊतम थानु ।
नानक जिह घटि वसै हरि नामु ॥८॥


Last Updated : December 28, 2013

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