हिन्दी पदावली - पद ४१ से ५०

संत नामदेवजी मराठी संत होते हुए भी, उन्होंने हिन्दी भाषामें सरल अभंग रचना की ।



४१
बाप मंझा समझि न परई । सांचो ढारि अवर कछु भरई ॥टेक॥
पानी का चित्र पवन का थंभा । कौन उपाइ रच्यौ आरंभा ॥१॥
इहां का उपज्यां इंहां बिलाना । बोलनहारा ए कहां समाना ॥२॥
कहै नराइन सुनि जन नांमा । जहां सुरति तहां पूरन कामा ॥३॥
जीवत राम न भयो प्रकासा । भनत नांमदेव मूवा कैसी आसा ॥४॥

४२
कैसे तिरत बहु कुटिल भरयौ । कलि के चिन्ह देषि नांहिन डरयौ ॥टेक॥
कैसी सेवा कैसा ध्यांन । जैसे उजल बग उनमान ॥१॥
भाव भुवंग भए पैहारी । सुरति सिंचाना मति मंजारी ॥२॥
नामदेव भणै बहु इहि गुणि बांधा । डाइन डिंभ सकल जग षाधा ॥३॥

४३
काल भै बापा सहया न जाइ । महा भै भीत जगत कूं षाइ ॥टेक॥
अनेक मुनेस्वर झूझै जाइ । सुर नर थाके करत उपाइ ॥१॥
कंपै पीर पैकंबर देव । रिसि कंपै चौंरासी जेव ॥२॥
चंद्र सूर धर पवन अकास । पाणी कंपै अगिन गरास ॥३॥
कंपै लोक लोकंतर षंड । ते भी कंपै अस्थिर प्यंड ॥४॥
अविचल अभै नराइन देव । नामदेव प्रणवै अलष अभेव ॥५॥

४४
सहजै सब गुन जइला । भगवत भगतां ए स्थिर रहिला ॥टेक॥
मुक्ति भऐला जाप जपेला । सेवक स्वामी संग रहेला ॥१॥
अमृत सुधानिधि अंत न जाइला । पीवत प्रान कदे न अधाइला ॥२॥
रामनांम मिलि संग रहैला । जबलग रस तब लग पीबैला ॥३॥

४५
कैसे न मिले राम रुठा मोठा । चित न चलै कुचित मोरा षोटा ॥टेक॥
बाइर मांडी बार लागीला । ऐसे जो मन लोगे बीठला ॥१॥
नामौ कहै मन मारिग लागिला । ऐसे निसागत सूर उगिला ॥२॥

४६
कहा करुं जग देषत अंधा । तजि आनंद बिचारै धंधा ॥टेक॥
पाहन आगै देव कटीला । बाको प्रांण नहीं बाकी पूज रचीला ॥१॥
निरजीव आगै सरजीव मारैं । देषत जनम आपनौं हारैं ॥२॥
आंगणि देव पिछौकडि पूजा । पाहन पूजि भए नर दूजा ॥३॥
नांमदेव कहै सुनौ रे धगडा । आतमदेव न पूजौ दगडा ॥४॥

४७
देवा तेरी भगति न मो पै होइ जी ।
जिहि सेवा साहिब भल मानै । करिहूं न जानै कोइ जी ॥टेक॥
सुमृत कथा होइ नहीं मोपै । कथूं त होइ अभिमान जी ।
जोई जोई कथूं उलटि मोहिं बांधै । त्राहि त्राहि भगवान जी ॥१॥
जामैं सकल जीव की उतपति । सकल जीव मैं आप जी ।
माया मोह करि जगत भुलाया । घटि घटि व्यापक बाप जी ॥२॥
सो बैकुंठ कहौं धौं कैसो । प्यंड परे जहँ जाइये ।
यहु परतीति मोहिं नहिं आवै । जीवत मुकति न पाइये ॥३॥
मैं जन जीव ब्रह्म तुम माधौ । विन देषे दुष पाईये ।
राषि समीप कहै जन नांमा । संगि मिला गुन गाईये ॥४॥

४८
भगति आपि मोरे बाबुला । तेरी मुक्ति न मांगू हरि बीठूला ॥टेक॥
भगति न आपै तौ तन आडौ । कोटि करै तौ भगति न छांडौ ॥१॥
अनेक जनम भरमतौ फिरयो । तेरो नांव ले ले उधरयौ ॥२॥
नांमदेव कहै तू जीवन मोरा । तू साइर मैं मंछा तोरा ॥३॥

४९
संसार समंदे तारि गोबिंदे । हुं तिरही न जानूं बाप जी ॥टेक॥
लोभ लहरि अति नीझर बरिषै । काया बूडे केसवा ॥१॥
अनिल बेडा षेइ न जानूं । पार दे पार दे बीठला ॥२॥
नांमा कहै मैं सेवग तेरा । बांह दे बांह दे बाबुला ॥३॥

५०
तुझ बिन क्यूं जीऊं रे तुझ बिन क्यूं जीऊं ।
तू मंझा प्रांन अधार तुझ बिन क्यूं जीऊं ॥टेक॥
सार तुम्हारा नांव है झूठा सब संसार ।
मनसा बाचा कर्मना कलि केवल नांव अधार ॥१॥
दुनियां मैं दोजग घनां दारन दुष अधिक अपार ।
चरन कंवल की मौज मैं मोहि राषौ सिरजन हार ॥२॥
मो तो बिचि पडदा किसा लोभ बडाई काम ।
कोई एक हरिजन ऊबरे जिनि सुमिरया चिहचल रांम ॥३॥
लोग वेद कै संगि बहूयौ सलिल मोह की धार ।
जन नांमा स्वामी बीठला, मोहि षेइ उतारौ पार ॥४॥

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Last Updated : January 02, 2015

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