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श्रीकृष्ण माधुरी - पद ८६ से ९०

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


८६.
आवत मोहन धेनु चराए।
मोर मुकुट सिर, उर बनमाला,
हाथ लकुट, गो रज लपटाए ॥१॥
कटि कछनी किंकिनि धुनि बाजति,
चरन चलत नूपुर रव लाए ।
ग्वाल मंडली मध्य स्याम घन,
पीत बसन दामिनी लजाए ॥२॥
गोप सखा आवत गुन गावत,
मध्य स्याम हलधर छबि छाए।
सूरदास प्रभु असुर सँघारे
ब्रज आवत मन हरष बढाए ॥३॥

८७.
राग कल्यान
ए लखि आवत मोहनलाल।
स्याम सुभग घन, तडित बसन, बग पंगति, मुक्ता माल ॥१॥
गो पद रज मुख पै छबि लागति, कुंडल नैन बिसाल।
बल मोहन बन तैं बने आवत, लीन्हे गैया जाल ॥२॥
ग्वाल मंडली मध्य बिराजत, बाजत बेनु रसाल।
सूर स्याम बन तैं आए, जननि लए अंकमाल ॥३॥

८८.
राग कान्हरौ
हम दोनो इहि भाँति कन्हाई।
सीस सिखंड, अलक बिथुरी मुख, कुंडल स्त्रवन सुहाई ॥१॥
कुटिल भृकुटि, लोचन अनियारे, सुभग नासिका राजत।
अरुन अधर दसनावलि की दुति दाडिम कन तन लाजत ॥२॥
ग्रीव हार मुकुता, बनमाला, बाहु दंड जग सुंड।
रोमावली सुभग बग पंगति, जाति नाभि हृद झुंड ॥३॥
कटि पट पीत, मेखला कंचन, सुभग जंघ, जुग जानु।
चरन कमल नख चंद्र नही सम, ऐसे सूर सुजानु ॥४॥

८९.
राग बिलावल
बने बिसाल कमल दल नैन।
ताहू मैं अति चारु बिलोकनि,
गूढ भाव सूचति सखि सैन ॥१॥
बदन सरोज निकट कुंचित कच,
मनौ मधुप आए मधु लैन।
तिलक तरुन ससि, कहत कछुक हँसि,
बोलत मधुर मनोहर बैन ॥२॥
मदन नृपति कौ देस महा मद,
बुधि बल बसि न सकत उर चैन।
सूरदास प्रभु दूत दिनहिं दिन,
पठवत चरित चुनौती दैन ॥३॥

९०.
राग धनाश्री
ऐसे हम देखे नँद नंदन ।
स्याम सुभग तनु पीत बसन, जनु
नील जलद पै तडित सुछंदन ॥१॥
मंद मंद मुरली रव गरजनि,
सुधा दृष्टि बरषति आनंदन।
बिबिध सुमन बनमाला उर, मनु
सुरपति धनुष नए हो छंदन ॥२॥
मुक्तावली मनौ बग पंगति,
सुभग अंग चरचित छबि चंदन।
सूरदास प्रभु नीप तरोवर
तर ठाढे सुर नर मुनि बंदन ॥३॥

( सखी कहती है- ) मोहन गाय चराकर आ रहे है । मस्तकपर मयूरपिच्छका मुकुट है, वक्षःस्थलपर वनमाला है, हाथमे छडी है और गायोंके खुरसे उडी धूलि लिपटाए हुए है । कमरमे कछनीके ऊपर किंकिणी मधुर ध्वनिसे बज रही है तथा चलते समय चरणोंमे नूपुरका शब्द हो रहा है । गोपबालकोंकी मण्डलीके बीच मेघके समान श्यामसुन्दर पीताम्बरके द्वारा बिजलीको भी लज्जित कर रहे है । गोप-सखा गुणगान करते आ रहे है, बीचमे स्याम और बलराम सुशोभित है । सूरदासजी कहते है कि मेरे स्वामी ( वनमे ) असुर मारकर मनमे प्रसन्नताको बढाते हुए व्रज आ रहे है ॥८६॥

देखो ! ये मोहनलाल आ रहे है । मेघके समान मनोहर श्याम शरीर है, बिजलीके समान पीताम्बर है, मोतियोंकी माला बगुलोंकी पंक्तिके समान है । गायोंके खुरसे उडकर मुखपर लगी धूलि सुहावनी लग रही है, ( कानोमे ) कुण्डल है ( और ) बडे-बडे नेत्र है, गायोंका समूह साथ लिये बलराम और श्याम वनसे सजे हुए आ रहे है । ( दोनो भाई ) गोपोंकी मण्डलीके मध्यमे विराजमान है, रसमयी वंशी बज रही है। सूरदासजी कहते है कि ( जब ) श्याम वनसे व्रजमे आये, ( तब ) माताने उन्हे गोदमे ले लिया ॥८७॥

( सखी कहती है- सखी ! ) हमने कान्हाईको इस प्रकार देखा । मस्तकपर मयूरपिच्छ, मुखपर बिखरी अलके, कानोंमें कुण्डल शोभा दे रहे है । टेढी भौंहे, नुकीले नेत्र, मनोहर छटा देती नासिका, लाल ओठ और दन्तपंक्तियोकी ऐसी कान्ति कि अनारके दाने भी अपने शरीरसे लजा जायँ ! गलेमे मोतोयोंकी माला तथा वनमाला, हाथीकी सूँडकी भाँति भुजदण्ड, झुंड बनाकर नाभिरुपी सरोवरको जाती हुई बगुलोंकी पंक्तिके समान मनोहर रोमावली, कमरमें पीताम्बर और सोनेकी करधनी, मनोहर जाँघे और दोनो पिंडलियाँ, कमलके समान चरणके नखोंकी समता चन्द्रमा भी नही कर सकते । सूरदासजी कहते है- ऐसे सुजान ( श्यामसुन्दर ) है, जिन्हे हमने देखा ॥८८॥

( गोपी कहती है- ) बडे-बडे नेत्र कमलदलके ( कमलकी पंखुडीके ) समान सजे है । सखी ! उसमे भी देखनेकी अत्यन्त सुन्दर भंगी ( रीति ) संकेतसे गूढ भाव सूचित करनेवाली है । कमलके समान मुखके चारो ओर घुँघराले बाल ऐसे लगते है, मानो भौंरे मधु लेने आये हो । पूर्ण चन्द्रमाके समान तिलक लगा है, हँसकर कुछ कह रहे है और मनोहर वचन बोल रहे है । ( इनका यह रुप तो ) मानो महान गर्विष्ठ कामदेवरुपी राजाका देश है; (जहाँ) अपने बुद्धि-बलसे ( विचार करके भी ) हृदयकी शान्ति नही बस सकती ( इन्हे देखकर चित चञ्चल हुए बिना रह नही सकता ) । सूरदासके स्वामी ( इतनेपर भी ) अपने चरितरुपी दूत दिनोंदिन ( रोज-रोज ) चुनौती देने भेज देते है । ऐसे-ऐसे चरित करते है मानो चुनौती दे रहे है कि देखे कौन कबतक धैर्य रख सकता है और मोहित नही होता ॥८९॥

( सखी सखीसे कहती है- ) हमने नन्दनन्दनको इस वेषमे देखा-मनोहर श्याम शरीरपर पीला वस्त्र ( ऐसा लग रहा था ) मानो नीले मेघपर स्वच्छन्द बिजली स्थिर हो । मन्द-मन्द वंशी-ध्वनिकी गर्जना ( के साथ ) अमृतमयी दृष्टि आनन्दकी वर्षा कर रही है । भाँति-भौतिके पुष्पोंकी वनमाला वक्षःस्थलपर ( ऐसी ) है मानो नयी रस्सीसे बँधा इन्द्रधनुष है । मोतियोंकी माला क्या है मानो बगुलोंकी पंक्ति हो, मनोहर अंगोमे लगा चन्दन शोभा दे रहा है । सूरदासजी कहते है-देवता, मनुष्य तथा मुनिगणोंके भी वन्दनीय मेरे स्वामी कदम्ब-वृक्षके नीचे खडे है ॥९०॥


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Last Updated : November 19, 2010

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