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श्रीकृष्ण माधुरी - पद ४१ से ४५

इस पदावलीके संग्रहमें भगवान् श्रीकृष्णके विविध मधुर वर्णन करनेवाले पदोंका संग्रह किया गया है, तथा मुरलीके मादकताका भी सरस वर्णन है ।


राग गौरी
मेरे नैन निरखि सुख पावत।
संझा समै गोप गोधन सँग, बन तै बनि ब्रज आवत ॥१॥
उर गुंजा बनमाल, मुकुट सिर, बेनु रसाल बजावत।
कोटि किरनि मनि मुख परकासित, उडपति कोटि लजावत ॥२॥
नटवर रुप अनूप छबीलौ, सबहिनि कैं मन भावत।
गोप सखा सब बदन निहारत, उर आनँद न समावत ॥३॥
चंदन खौर, काछनी काछे, देखत ही मन भावत।
सूर स्याम नागर नारिनि कौ बासर बिरह नसावत ॥४॥


४२.
साँवरौ मन मोहन माई।
देखि सखी ! बन तैं ब्रज आवत
सुंदर नंदकुमार कन्हाई ॥१॥
मोर पंख सिर मुकुट बिराजत,
मुख मुरली धुनि सुभग सुहाई।
कुंडल लोल कपोलनि की छबि
मधुरी बोलनि बरनि न जाई ॥२॥
लोचन ललित, ललाट भृकुटि बिच,
तकि मृगमद की रेख बनाई।
मनु मरजाद उलंघि अधिक बल
उमँगि चली अति सुंदरताई ॥३॥
कुंचित केस सुदेस कमल पर,
मनु मधुपनि माला पहिराई।
मंद मंद मुसुक्यानि, मनौ घन,
दामिनि दुरी दुरि देति दिखाई ॥४॥
सोभित सूर निकट नासा के,
अनुपम अधरनि की अरुनाई।
मनु सुक सुरँग बिलोकि बिंब फल
चाखन कारन चौंच चलाई ॥५॥


४३.
राग पूर्वी
तरु तमाल तरैं त्रिभंगी कान्ह
कुँवर ठाढे हैं साँवरे सुबरन।
मोर मुकुट, पीतांबर, बनमाला
राजत उर ब्रज जन मन हरन ॥१॥
सखा-अंसु पैर भुज दीन्हें
लीन्हें मुरलि अधर मधुर बिस्व भरन।
सूरदास कमल नैन को न
किए बिलोकि गोबरधन धरन ॥२॥

४४.
राग बिलावल
स्याम हृदै बर मोतिनि माला।
बिथकत भई निरखि ब्रजबाला ॥१॥
स्त्रवन थके सुनि बचन रसाला।
नैन थके दरसन नँदलाला ॥२॥
कंबु कंठ, भुज नैन बिसाला।
कर केयुर कंचन नग जाला ॥३॥
पल्लव हस्त मुद्रिका भ्राजै।
कौस्तुभ मनि हृदयस्थल छाजै॥४॥
रोमावली बरनि नहिं जाई।
नाभिस्थल की सुंदरताई ॥५॥
कटि किंकिनी चंद्रमनि-संजुत।
पीतांबर कटि तट छबि अद्भुत ॥६॥
जुगल जंघ की पटतर को है।
तरुनी मन धीरज कौं जोहै ॥७॥
जानि जानु की छबि न सम्हारौ।
नारि निकर मन बुद्धि बिचारौ ॥८॥
रतन जटित कंचन कल नूपुर।
मंद-मंद गति चलत मधुर सुर ॥९॥
जुगल कमल पद नख मनि आभा।
संतन मन संतत यह लाभा ॥१०॥
जो जिहिं अंग सु तहाँ भुलानी।
सूर स्याम गति काहुँ न जानी ॥१॥


४५.
राग गौरी
नंद नंदन मुख देखी माई !
अंग अंग छबि मनौ उए रबि, ससि अरु समर लजाई ॥१॥
खंजन, मीन, भृंग, बारिज, मृग पर दृग अति रुचि पाई।
स्त्रुति मंडल कुंडल मकराकृत बिलसत मदन सदाई ॥२॥
नासा कीर, कपोत ग्रीव, छबि दाडिम दसन चुराई ।
द्वै सारँग बाहन पर मुरली आई देति दुहाई ॥३॥
मोहे थिर, चर, बिटप, बिहंगम, ब्योम बिमान थकाई।
कुसुमांजलि बरषत सुर ऊपर, सूरदास बलि जाई ॥४॥

( जब ) संध्याके समय गोपकुमारों तथा गायोंके साथ श्यामसुन्दर वनसे सजकर व्रजमे आते है, ( तब उनको ) देखकर मेरे नेत्र सुखी होते है । वक्षःस्थलपर गुञ्जाहार और वनमाला तथा मस्तकपर मुकुट धारण किये रसमय मुरली बजाते है, तब उनका करोडो सूर्योंके समान प्रकाशमान मुख करोडों चन्द्रोको भी लज्जित करता है । अनुपम शोभामय नटवर वेष सभीके मनको भाता है; ( जब ) सब गोपकुमार सखा ( मोहनके ) मुखको निहारते है, तब उनके हृदयमे आनन्द समाता नही । चन्दनकी खौर लगाये तथा कछनी बाँधे हुए वे देखते ही मनको प्रिय लगते है । सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दर गोकुल नगरकी स्त्रियोंके दिनभरका वियोग नष्ट करते हुए आते है ॥४१॥

( गोपी कहती है- ) ’ सखी ! श्यामसुन्दर मनको मोह लेनेवाले हैं । सखी ! ( उधर ) देख तो ! सुन्दर नन्दकुमार कन्हाई वनसे व्रज आ रहे है । मस्तकपर मयूरपिच्छका मुकुट विराजमान है और मुखसे वंशीकी सुन्दर सुहावनी ध्वनि हो रही है । चञ्चल कुण्डलयुक्त कपोलोंकी शोभा और मधुर बोलीका वर्णन नही किया जा सकता है । नेत्र ( बडे ही ) सुन्दर है और ललाटमे भौंहेके मध्यसे प्रारम्भ होकर देखो कस्तूरीकी रेखा ( कैसी ) सजी है मानो महान सुन्दरता सीमाका उल्लंघन करके अत्यंत वेगपूर्वक उमड चली हो । ( मस्तकके ) घुँघराले केश ( मुखको घेरे हुए ) ऐसे भले लग रहे है मानो कमलको भौंरेकी माला पहना दी गयी हो । मन्द-मन्द मुसकराहट ऐसी है मानो बादलोंमे बिजली छिप-छिपकर बार-बार दिखाई दे जाती हो । सूरदासजी कहते है- नासिकाके पास अनुपम अधरोंकी लालिमा ऐसी शोभा दे रही है मानो लाल ( पके ) बिम्बफलको देखकर तोतेने चखनेके लिये चोंच चलायी हो । ’ ॥४२॥

साँवले सुन्दर रंगवाले कुँवर कन्हाई तमाल वृक्षके नीचे त्रिभंगी भावसे खडे है । मयूरपिच्छका मुकुट है, पीताम्बर पहिने है और व्रजके लोगोंका मन हरण करनेवाली वनमाला वक्षःस्थलपर शोभित है । सखाके कंधेपर भुजा रखकर अपने मधुर स्वरसे विश्वको पूरित करनेवाली मुरली अधरोंपर रखे है । सूरदासजी कहते है- इन गोवर्धनधारी कमल-लोचनने केवल देखकर किसे अपना नही बना लिया। ( जिसे ये देख लेते है, वही इनका हो जाता है । ) ॥४३॥

श्यामसुंन्दरके हृदयपर श्रेष्ठ मोतियोंकी माला ( की शोभा ) देखकर व्रजकी गोपियाँ अत्यन्त मुग्ध हो गयी । उनके कान रसमय वचन सुनकर मोहित हो गये और नेत्र नन्दके लालको देखकर थकित हो रहे । शंखके समान कण्ठ, भुजाएँ और नेत्र बडे-बडे तथा बाहुओंमे अंगद है, जो स्वर्णके बने एवं मणियोंसे जडे है । पल्लवके समान हाथोमें मुँदरियाँ शोभा दे रही है तथा वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि फब रही है । ( उदरपरकी ) रोमावली तथा नाभिदेशकी सुन्दरताका वर्णन नहीं हो सकता । कमरमें चन्द्रकान्त मणियोंसे युक्त किंकिंणी तथा कटिदेशमे बँधे पीताम्बरकी अद्भुत ही शोभा है । ( भला ) दोनो जंघाओंकी तुलनायोग्य कौन है, वे तो ( मानो ) युवतियोंके मनके धैर्यको देखते है ( किसमे कितना धैर्य है ) । पिंडलियोंकी छटाको समझकर व्रजकी नारियोंका समूह मन तथा बुद्धिसे विचार करता है ( अर्थात धैर्य रखना चाहता है ) किन्तु अपनी सम्हाल रह नही पाता । ( चरणोंमे पहिने जब वे ) मन्द-मन्द चालसे चलते है, उस समय उनके रत्नजटित सोनेके सुन्दर नूपुरोंसे बडी मधुर झंकार होती है । दोनो चरणकमलोंके नखोंकी कान्ति मणियोंके समान है, सत्पुरुषोंका मन निरन्तर इनका ( इन चरणनखोंके ध्यानका ) लाभ चाहता है । जो ( गोपी ) जिस अंगपर दृष्टि डालती है, वह वही भूल जाती ( उसीको देखनेमें तल्लीन हो जाती ) है । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरकी गति ( लीला-रहस्य ) को किसीने जाना नही ॥४४॥

( गोपी कहती है- ) सखी ! नन्दनन्दनके मुखको ( तो ) देखो । अंगप्रत्यंगकी शोभा ऐसी है, मानो सूर्य उदय हो गया है और चन्द्रमा तथा कामदेव दोनो लज्जित हो रहे है । ( इनके ) नेत्रोंने खञ्जन, मछली, भौंरे, कमल और हरिणके नेत्रोंसे भी अधिक शोभा प्राप्त की है; कानोंके घेरेमे मकराकृत कुण्डलके रुपमे ( मानो साक्षात मीनकेतु ) कामदेव सदा क्रीडा किया करत है । नासिकाने तोते, कण्ठने कबूतर और दाँतोने अनारके दानोंकी शोभा चुरा ली है और यह वंशी तो दो ( भुजाओंरुपी ) नागोंके वाहनपर विजयघोषणा करती हुई आ रही है । इसने स्थिर-चर, वृक्ष-पक्षी-सबको मोह लिया है और आकाशके विमान स्तम्भित हो गये है । ऊपरसे देवता पुष्पाञ्जलिकी वर्षा कर रहे है । सूरदास ( इस शोभापर ) बलिहारी जाता है ॥४५॥


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Last Updated : November 19, 2010

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