शिवानन्दलहरी - श्लोक ८१ ते ८५

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


८१

कंचित्कालमुमामहेश भवतः पादारविन्दार्चनैः

केचिद्वयानसमाधिभिश्च नतिभिः केचित्कथाकर्णनैः ।

केचित्कंचिदवेक्षणैश्च नुतिभिः काचिदृशामीदृशीं  

यः  प्राप्रोति मुदा त्वदर्पितमना जीवन्स मुक्तःखलु ॥८१॥

८२

बाणत्वं बृषभत्वमर्धवपुषा भार्यात्वमार्यापते

घोणित्वं सखिता मृदड़वहता चेत्यादि रुपं दधौ ।

त्वत्पादे नयनार्पणं च कृतवान् त्वद्देहभागो हरिः

पूज्यात्पूज्यतरस्य एव हि न चेत् को वा तदन्योऽधि्कः ॥८२॥

 

८३

जननमृतियुतानां सेवया देवतानां

न भवति सुखलेशः संशयो नास्ति तत्र ।

अजनिममृतरुपं साम्बमीशं भजन्ते

य इह परमसौख्यं ते हि धन्या लभन्ते ॥८३॥

 

८४

शिव तव परिचर्यासत्रिधानाय गौर्या

भव मम गुणधुर्या बुद्विकन्यां प्रदास्ये ।

सकलभुवनबन्धो सच्चिदानन्दसिन्धो

सदय ह्रदयगेहे सर्वदा संवस त्वम् ॥८४॥

 

८५

जलधिमथनदक्षो नैव पातालभेदी

न च वनमृगयायां नैव लुब्धःप्रवीणः ।

अशन -कुसुम -भूषा -वस्त्रमुख्यां सपर्यां

कथय कथमहं ते कल्पयानीन्दुमौले ॥८५॥

हे उमा महेश्वर ! कुछ समय आपके चरणॊं की अर्चना करने से , कुछ आपके ध्यान और समाधि से , कुछ वन्दना से , कुछ आपके मनोरंजन के लिये नृत्य से , जो कथा सुनने से , कुछ आपके दर्शन करने से , कुछ ऐसी आत्मविभोर दशा प्राप्त कर लेता है , वह , सचमुच , इसी लोक में , जीते जी मुक्त हो जाता है । ॥८१॥

( इस पद्य में कई पौराणिक कथाओं की पृष्ठभूमि है । यहाँ भगवान शिव की हरिहर रुप में वन्दना है । भगवान् शिव ने विष्णु को बाण बनाकर त्रिपुर संहार किया । विष्णु वृषभरुप में शिव के वाहन बनतें हैं । विष्णु अर्धाड्रि . नी रुप में शिव की भार्या बने । शूकर बनकर विष्णु ने शिव के चरणों तक पहुँचने का प्रयास किया । मोहिनीरुप धारण कर विष्णु ने शिव की सहचरी का कर्तव्य निभाया । भस्मासुर बध के लिये भी विष्णु ने सुन्दर स्त्री का रुप स्वीकार किया । जब शिवजी नृत्य करते हैं तो विष्णु मृदड़ बजाते हैं । जब , अर्चना करते समय , हजार कमल के पुष्पों में एक कम पड़ गया , तो विष्णु ने अपना नेत्र अर्पण करना चाहा । )

हे उमापति ! भगवान विष्णु आपके लिये अनेक रुप धारण करते आये है । त्रिपुर संहार के लिये वाण बने , बृषभरुप में वाहन बने , अर्धाड्रि .नी के रुप में भार्या बने , शूकर बनकर पृथ्वी खॊदते -खोदते शिव के चरणॊं तक पहुँचने का प्रयास किया । मोहिनी रुप में सहचरी बने । और तो और , जब सहस्त्र कमल से अर्चना के समय एक कमलपुष्प कम पड़ गया तो , उसके स्थान पर , अपना नेत्र अर्पन करने को तत्पर हो गये । उनसे बढ़कर शिव का प्रिय दूसरा कौन हो सकता है ॥८२॥

जन्म लेनेवाले और मरनेवाले छोटे -बड़े देवताओं की सेवा से क्या लाभ ? उनकी सेवा से किंचित् मात्र भी सुख नहीं मिलता । इसमें कुछ भी संशय नहीं है । जो लोग अजन्मा और अमर भगवान् शिव की आराधना करते हैं उन्हें परम आनन्द प्राप्त होता है । ऐसे लोग ही धन्य हैं । ॥८३॥

हे शुभकर्ता ! हे जगत के कारण ! हे शिव -बन्धु ! हे सत्चित् और आनन्द के सागर ! हे दयालु ! आपकी सेवा में गौरी का हाथ बँटाने के लिये मैं अपनी गुणवती बुद्विरुपी कन्या को अर्पण करता हूँ। आप सदा मेरे ह्रदयरुपी घर में सुखपूर्वक निवास करें । ॥८४॥

( भगवान् शिव की सेवा में कालकुट हलाहल , सर्प , गजचर्म आदि रहते हैं । भक्त चिंतित है ऐसी सामग्री वह कहाँ से , कैसे , प्राप्त कर सकता है )

हे इन्दुशेखर शम्भो ! मैं न तो समुद्र मंथन जानता हूँ , इसलिये चन्दमा और हलाहल जैसी चीजें नहीं ला सकता । पाताल पहुँचकर आपकी सेवा में सर्प भी नहीं ला सकता । जंगल में शिकार करने में प्रवीण शिकारी नहीं हूँ कि गज चर्म आदि एकत्र कर सकूँ । अब आप ही बताइये , आपका नैवेद्य , पुष्प , आभूषण , वस्त्र आदि मैं कहाँ से लाऊँ ॥८५॥


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Last Updated : November 11, 2016

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