शिवानन्दलहरी - श्लोक २६ ते ३०

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


२६

कदा वा त्वां दृष्ट्‍ता गिरिश तव भव्यांध्रियुगलं

गृहीत्वा हस्ताभ्यां शिरसि नयने वक्षसि वहन् ।

समाश्लिष्याघ्राय स्फुटजलजगन्धान्परिमला

नलभ्यां ब्रह्याद्यैर्मुदमनुभविष्यामि ह्रदये ॥२६॥

 

२७

करस्थे हेमाद्रौ गिरिश निकटस्थे धनपतौ

गृहस्थे स्वर्भूजामरसुरभिचिन्तामणिगणे ।

शिर ःस्थे शीतांशौ चरचरणयुगलस्थेऽखिलशुभे

 

२८

सारुप्यं तव पूजने शिव महादेवेति संकीर्तने

सामीप्यं शिवभक्तिधुर्यजनतासांगत्यसंभाषणे ।

सालोक्यं च चराचरात्मकतनुध्याने भवानीपते

 

२९

त्वत्पादाम्बुजमर्चयामि परमं त्वां चिन्तयाम्यन्वहं

त्वामीशं शरणं ब्रजामि वचसा त्वामेव याचे विभो ।

वीक्षां मे दिश चाक्षुषीं सकरुणां दिव्यैश्चिरं प्रार्थितां

शंभो लोकगुरो मदीय मनस ः सौख्योपदेशं कुरु ॥२९॥

 

३०

वस्त्रोद्दधूतविधौ सहस्त्रकरता पुष्पार्चने विष्णुता

गन्धे गन्धवहात्मतात्रपचने बर्हिर्मुखाध्यक्षता

पात्रे कांचनगर्भतास्ति मयि चेद् बालेन्दुचूडामणे

सुश्रूषां करवाणि ते पशुपति स्वामिन् त्रिलोकीगुरो ॥३०॥

हे कैलासपति शम्भो ! क्या कभी ऐसा हो सकेगा कि मैं आपके दर्शन पाकर , आपके चरणयुगल को हाथों से पकड़ कर , उन्हें अपने सिर , आँखों , और ह्रदय से लगाकर , उनका आलिड्र .न कर , खिले कमल की सुगंध के समान सुगंध को सूँघकर , ब्रह्या आदि देवगणों के लिये भी दुर्लभ आनन्द का ह्रदय में अनुभव कर सकूँगा । ॥२६॥

कमर्थ दास्येऽहं भवतु भवदर्थं मम मन ः ॥२७॥

जब स्वर्णगिरि सुमेरु भगवान् शिव के निकट हो , धनपति कुवेर पास हों , घर में स्वर्ग का कल्पवृक्ष , कामधेनु गाय , और चिन्तामणि का समूह हो , शिर पर अमृत वर्षा करनेवाला शीतल चन्द्रमा हो , और चरणों में सारे मड्र .ल हों -ऐसे ऐश्वर्य -सम्पन्न आपको , हे कैलासपति ! मैं क्या अर्पण कर सकता हूँ ? मेरा मन ही आपको अर्पण है । ॥२७॥

सायुज्यं मम सिद्वमत्र भवति स्वामिन्कृतार्थोऽस्म्यहम् ॥२८॥

हे शिवशम्भो ! आपके पूजन से मुझे सारुप्य मुक्ति , "शिव , शिव , महादेव " आदि नामों के संकीर्तन से सामीप्य मुक्ति , शिवभक्तों के सत्संग और उनके साथ संभाषण से सालोक्य मुक्ति , और चराचरात्मक आपके शरीर का ध्यान करने से सायुज्य मुक्ति , यहीं , इसी जीवन में , सिद्व हो जायगी । उमापती स्वामी ! में धन्य , कृतार्थ हूँ । ॥२८॥

ऐस . बालकृष्णन् ने शिवानन्दलहरी की अपनी टीका में जगद्रुरु काच्ची परमाचार्य का मत उद्वृत करते हुए बताया है कि इस पद्य में आचार्य शंकर अपने बारे में कह रहे हैं । आचार्य शंकर भगवान् शिव के अवतार प्रसिद्व हैं । ’शंभु ’ का अर्थ है क्रियारहित कल्याणकारी , और ’शंकर ’ का अर्थ है शक्ति -युक्त क्रियाशील कल्याणकारी । यह क्रियाशीलता अवतार में प्रकट होती है । आचार्य शंकर के जगद्रुरुरुप में यह कल्याणकारी अवतार प्रकट हुआ है । ॥२९॥

हे चन्द्रमौलि ! यदि मेरे पास सहस्त्ररक्ष्मि सूर्य की क्षमता हो तो मैं आपके परिधान फैला सकूँ , यदि विष्णु जैसी सर्वव्यापकता हो तो पुष्पार्चन कर सकूँ , यदि वायू जैसी सर्व -वाहकता हो तो नीराजन कर सकूँ , यदि अग्नि के स्वामी इन्द्र जैसी सामर्थ्य हो तो नैवेद्य पका सकूँ , यदि हिरण्यगर्भ पर स्वामित्व हो तो आपके पात्र बना सकूँ । हे त्रिलोकी गुरु , पशुपतिनाथ स्वामी ! आपकी सुश्रूषा के लिये जो क्षमता चाहिये वह मेरे पास नहीं है । निस्सीम की सेवा के लिये सीमित साधनों से क्या होता है ? आपकी सेवा के लिये तो सूर्य , विष्णु , वायु , अग्नि आदि देवगण ही समर्थ हो सकते हैं । ॥३०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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