शिवानन्दलहरी - श्लोक ६ ते १०

शिवानंदलहरी में भक्ति -तत्व की विवेचना , भक्त के लक्षण , उसकी अभिलाषायें और भक्तिमार्ग की कठिनाईयोंका अनुपम वर्णन है । `शिवानंदलहरी ' श्रीआदिशंकराचार्य की रचना है ।


घटो वा मृत्पिडोऽप्यणुरपि च धूमोऽग्निरचल :

पटो वा तन्तुर्वा परिहरति किं घोरशमनम् ।

वृथा कण्ठक्षोभं वहसि तरसा तर्कवचसा

पदाम्भोजं शंभोर्भज परमसौख्यं व्रज सुधी ॥६॥

मनस्ते पादाब्जे निवसतु वच : स्तोत्रफणितौ

करौ चाभ्यर्चायां श्रुतिरपि कथाकर्णनविधौ ।

तब ध्याने बुद्विर्नयनयुगलं मूर्तिविभवे

परग्रन्थान्कैर्वा परमशिव जाने परमत ॥७॥

यथा बुद्वि :शुक्तौ रजतमिति काचाश्मनि मणि -

र्जले पैष्टे क्षीरं भवति मृगतृष्णासु सलिलम् ।

तथा देवभ्रान्त्या भजति भवदन्यं जडजनो

महादेवेशं त्वां मनसि च न मत्वा पशुपते ॥८॥

गभीरे कासारे विशति विजने घोरविपिने

विशाले शैले च भ्रमति कुसुमार्थ जडमति ।

समप्यैकं चेत : सरसिजमुमानाथ भवते

सुखेनावस्थातुं -जन इह न जानाति किमहो ॥९॥

१०

नरत्वं देवत्वं नगवनमृगत्वं मशकंता

पशुत्वं कीटत्वं भवतु विहगत्वादि जननम् ।

सदा त्वत्पादाब्जस्मरणपरमानन्दलहरी -

विहारासक्तं चेदू ह्रदयमिह किं तेन वपुषा ॥१०॥

[ तार्किक लोग शास्त्रार्थ करते रहते है ] घड़ा या मिट्टी का ढे़ला? छोटा- सा कण अथवा पहाड़? धुँवा अथवा अग्नि? कपड़ा अथवा धागा? क्या ऐसा व्यर्थ वाद- विवाद भयानक यम को दुर रख सकेगा? ऐसे तीखे तर्कों से व्यर्थ ही अपने गले को दुखा रहा है । अगर तू बुद्विमान है तो दौंड़कर परमसुखदायी भगवान शिव के चरण- कमलों का आश्रय ले । ॥६॥

हे परम शिवा ! मेरा मन सदा आपके चरण कमलों मे लगा रहे । मेरी वाणी सदा आपकी स्तुती और किर्तन करती रहे । मेरे दोनों हाथ आपकी अर्चना करते रहें । मेरे कान आपकी कथाएँ सुनते रहें । मेरी बुद्वि आपका मनन करती रहे । और मेरे दोनों नेत्र आपकी मूर्ति के दर्शन करते हुए उसका वैभव निहारते रहें । जब मेरी सारी इन्द्रियाँ और अवयव आपकी भक्ति में इस भाँति संलग्न होंगे तो मैं , इन इन्द्रियों के अतिरिक्त , दूसरे किस साधन से अन्य ग्रन्थों को जान पाऊँगा ॥७॥

जैसे सीपी को चाँदी समझकर बुद्वि भ्रमित हो जाती है , काँच के टुकड़े में मणि का भ्रम हो जाता है , आटे मिले हुए पानी को दूध समझने की भूल हो जाती है , चमकती रेत में पानी का आभास हो जाता है , उसी भाँति , हे देव पशुपति ! भ्रान्ति में जडमति मनुष्य , देवाधिदेव आपको मन में नहीं मानकर , आपके अतिरिक्त दूसरे देवताओं की सेवा करने लगते हैं । ॥८॥

कैसी अजीब बात है कि बुद्विहीन मनुष्य पूजा के लिये पुष्प एकत्रित करने के लिये गहरे तालाबों में घुसते हैं , निर्जन घोर जंगलों , और बडे - बडे ऊँचे पहाड़ों में घूमते हैं । ( ये जडमति नहीं जानते कि बाहर संचित किये हुए पुष्प तो ह्रदय - कमल के प्रतीक हैं । वास्तविक महत्त्व तो मानसी पूजा का है ) हे उमानाथ ! ऐसे लोग नहीं जानते कि केवल एक अपने ह्रदय - कमल को आपके लिये अर्पित कर ये सुखपूर्वक रह सकते हैं । ॥९॥

मैं मनुष्य योनि में जनमूँ अथवा देवयोनि में , पहाड़ों और जंगलों में पशुरुप में पैदा होंऊँ अथवा मच्छर - जैसे कीट - पतंगों में जन्म लूँ , मेरा जन्म पशुयोनि , कीटयोनि अथवा विहगयोनि आदिं किसी भी योनि में हो । यदि आपके चरणकमलों के स्मरण के परम आनन्द की तरंगों का मैं सुख भॊग रहा होंऊँ तो इन देहों का क्या महत्व ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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