द्वादशस्कन्धपरिच्छेदः - शततमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


अग्रे पश्यामि तेजो निबिडतरकलायावलीलोभनीयं

पीयूषाप्लावितोऽहं तदनु तदुदरे दिव्यकैशोरवेषम् ।

तारुण्यारम्भरम्यं परमसुखरसास्वादरोमाञ्चिताङ्गै -

रावीतं नारदाद्यैर्विलसदुपनिषत्सुन्दरीमण्डलैश्र्च ॥१॥

नीलाभं कुञ्चिताग्नं घनममलतरं संयतं चारूभङ्ग्य़ा

रत्नोत्तंसाभिरामं वलयितमुदयच्चन्द्रकैः पिच्छजालैः ।

मन्दारस्रङ्निवीतं तव पृथुकबरीभारमालोकयेऽहं

स्निग्धश्र्वेतोर्ध्वपुण्यड्रामपि च सुललितां फालबालेन्दुवीथीम् ॥२॥

हृद्यं पूर्णानुकम्पार्णवमृदुलहरीचञ्चलभू्रविलासै -

रानीलस्निग्धपक्ष्मावलिपरिलसितं नेत्रयुग्मं विभो ते ।

सान्द्रच्छायं विशालारुणकमलदलाकारमामुग्धतारं

कारुण्यालोकलीलाशिशिरितभुवनं क्षिप्यतां मय्यनाथे ॥३॥

उत्तुङ्गोल्लसिनासं हरिमणिमुकुरप्रोल्लसद्गण्डपाली -

व्यालोलत्कर्णपाशाञ्चितमकरमणीकुण्डलद्वन्द्वदीप्रम् ।

उन्मीलद्दन्तपङ्क्तिस्फुरदरुणतरच्छायबिम्बाधरान्तः -

प्रीतिप्रस्यन्दिमन्दस्मितशिशिरतरं वक्त्रमुद्भासतां मे ॥४॥

बाहुद्वन्द्वेन रत्नोज्ज्वलयभृता शोणपाणिप्रवाले -

नोपात्तां वेणुनालीं प्रसृतनखमयूखाङ्गुलीसङ्गशाराम् ।

कृत्वा वक्त्रारविन्दे सुमधुरविकसद्रागमुद्भाव्यमानैः

शब्दब्रह्मामृतैस्त्वं शिशिरितभुवनैः सिञ्च मे कर्णवीथीम् ॥५॥

उत्सर्पत्कौस्तुभश्रीततिभिररुणितं कोमलं कण्ठदेशं

वक्षः श्रीवत्सरम्यं तरलतरसमुद्दीप्तहारप्रतानम् ।

नानावर्णप्रसूनावलिकिसलयिनीं वन्यमालां विलोल -

ल्लोलम्बा लम्बमानासमुरासि तव तथा भावये रत्नमालाम् ॥६॥

अङ्गे पञ्चाङ्गरागैतिशयविकसत्सौरभाकृष्टलोकं

लीनानेकत्रिलोकीविततिमपि कृशां बिभ्रतं मध्यवल्लीम् ।

शक्राश्मन्यस्ततप्तोज्ज्वलकनकनिभं पीतचेलं दधानं

ध्यायामो दीप्तरश्मिस्फुटमणिरशनाकिङ्किणीमण्डितं त्वाम् ॥७॥

ऊरू चारू तवोरू घनमसृणरुचौ चित्तचोरौ रमाया विश्र्वक्षोभं विशङ्क्य़ ध्रुवमनिशमुभौ पीतचेलावृताङ्गौ ।

आनम्राणां पुरस्तान्नयसनधृतसमस्तार्थपालीसमुद्ग -

च्छायं जानुद्वयं च क्रमपृथुलमनोज्ञ च जङ्घे निषेवे ॥८॥

माञ्जीरं मञ्जुनादैरिव पदभजनं श्रेय इत्यालपन्तं

पादाग्रं भ्रान्तिमज्जत्प्रणतजनमनोमन्दरोद्धारकूर्मम् ।

उत्तुङ्गाताम्रराजन्नखरहिमकरज्योत्स्रया चाश्रितानां

संतापध्वान्तहन्त्रीं ततिमनुकलये मङ्गलामङ्गुलीनाम् ॥९॥

योगीन्द्राणां त्वदङ्गेष्वधिकसुमधुरं मुक्तिभाजां निवासो

भक्तानां कामवर्षद्युतरुकिसलयं नाथ ते पादमूलम् ।

नित्यं चित्तस्थितं मे पवनपुरपते कृष्ण कारुण्यसिन्धो

हृत्वा निश्शेषतापान् प्रदिशतु परमानन्दसंदोहलक्ष्मीम् ॥१०॥

अज्ञात्वा ते महत्त्वं यदिह निगदितं विश्र्वनाथ क्षमेथाः

स्तोत्रं चैतत्सहस्रोत्तरमधिकतरं त्वत्प्रसादाय भूयात् ।

द्वेधा नारायणीयं श्रुतिषु च जनुषा स्तुत्यता वर्णनेन

स्फीतं लीलावतारैरिदमिह कुरुतामायुरारोग्यसौख्यम् ॥११॥

॥ अति केशादिपादवर्णनं शततमदशकं समाप्तम् ॥

॥ श्रीमन्नारायणीयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

भगवन् ! परमानन्दमें निमग्न हुआ मैं अपने समक्ष एक प्रभामण्डल देख रहा हूँ । तत्पश्र्चात् उसके मध्यभागमें मुझे आपका वह दिव्य किशोर वेष दृष्टिगोचर हो रहा है , जो मटर -पुष्पकी घनीभूत श्यामलता -सदृश मनको लुभानेवाला , नवयौवनके समारम्भसे अत्यन्त अभिराम , परमानन्दरूपी रसके आस्वादनसे रोमाञ्चित शरीरवाले नारद आदि देवर्षियोंद्वारा समावृत तथा मूर्तिमती उपनिषद् -रूपिणी सुन्दरियोंसे सुशोभित है ॥१॥

आपका वह त्रिभङ्ग -ललित वेष नीली कान्तिसे युक्त निर्मल सघन घुँघराली अलकोंसे सुशोभित , रत्नमय आभूषणोंसे अतिशय कमनीय , अपनी प्रभा बिखेरनेवाले मयूर -पिच्छसे समावृत , मन्दार -पुष्पोंकी मालासे परिवेष्टित तथा लंबी -मोटी चोटीसे विभूषित है , मैं उस रूपको तथा ललाटमें बाल -चन्द्रकी वीथी -सदृश अतिशय शोभाशाली सुकोमल उज्जवल वर्णके ऊर्ध्वपुण्ड्रको भी देख रहा हूँ ॥२॥

विभो ! जो परिपूर्ण करुणार्णवकी सुन्दर तरङ्गोके -से चञ्चल भ्रूविलासोंसे अतिशय मनोहर , अत्यन्त नीली एवं सुकोमल पलकोंसे सुशोभित तथा घनीभूत छायासे संयुक्त है , जिसकी आकृति विशाल अरुण कमलदलकी -सी है , पुतलियॉं मनको मोहनेवाली हैं तथा जो लीलापूर्वक करुणापूर्ण अवलोकनसे सारे भुवनको आनन्दित करनेवाला है , अपने उस नेत्रयुगलको मुझ अनाथपर भी डालिये अर्थात् मुझ आश्रयहीनपर कृपादृष्टि कीजिये ॥३॥

जो ऊँची एवं सुघड़ नासिकासे सुशोभित है , जिसका इन्द्रनीलमणिमय दर्पण -सदृश कपोलभाग कानोंमें पहने हुए झिलमिल -झिलमिल करनेवाले दोनों मकराकृत मणिनिर्मित कुण्डलोंसे उद्दीप्त हो रहा है , जिसकी खुली हुई दन्त -पंक्तिकी निराली प्रभा फैल रही है तथा जो अरुण -कान्तिवाले होठोंके मध्य प्रेम -रसकी धारा बहानेवाली मन्द मुसकानसे अतिशय आह्लादजनक है , आपका वह श्रीमुख मुझे उद्भासित करे ॥४॥

जिनकी दोनों भुजाएँ प्रकाशमान रत्ननिर्मित बाजूबंदसे सुशोभित हैं , जो अपने प्रवाल -सदृश अरुण हाथोंसे नख -किरणोंकी बिखेरनेवाली अंगुलियोंके सम्पर्कसे चित्र -विचित्र -सी दीखनेवाली मुरालिकाको पकड़कर अपने मुख -कमलपर लगाये हुए हैं और उससे परम मधुर राग अलाप रहे हैं , ऐसे आप समस्त भुवनोंको आनन्दित करनेवाले उस प्रत्यक्ष प्रकट हुए नादामृतसे मेरी कर्ण -गलीको सींच दीजिये ॥५॥

आपका कोमल कण्ठदेश उद्दीप्त कौस्तुभमणिकी शोभा -पंक्तियोंसे अरुणायमान हो रहा है , वक्षःस्थल श्रीवत्ससे सुशोभित है तथा हिलते हुए अतिशय प्रभाशाली हारसमूहोंसे उसकी अद्भुत शोभा हो रही है , गलेमें पहनी हुई नाना प्रकारके रंग -बिरंगे पुष्पसमूहों तथा पल्लवोंसे गुँथी वनमाला घुटनेतक लटक रही है तथा उसपर चञ्चल भौंरे मँडरा रहे हैं ; इसी प्रकार आपकी छातीपर मैं रत्न -मालाकी भी भावना करता हूँ ॥६॥

जिनके श्रीविग्रहपर हरिचन्दन -गोरोचन आदि पॉंच सुगन्धित पदार्थोंसे बना हुआ अङ्गराग लगा हुआ है , अतएव जो अतिशय उत्कट सुगन्धसे सारे लोकोंको अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है , अनेक ब्रह्माण्ड -समूहोंको अपने अंदर लीन करनेवाला होनेपर भी जिनका कटिप्रदेश अत्यन्त कृश है , जिनके शरीरपर पीताम्बरकी उसी प्रकार शोभा हो रही है मानो इन्द्रनील मणिपर प्रतप्त एवं उद्दीप्त सुवर्ण रखा हो तथा जो दीप्तिमती किरणोंसे प्रकाशमान मणिनिर्मित करधनीकी क्षुद्र घंटिकाओंसे सुशोभित हैं , ऐसे आपका हम ध्यान करते हैं ॥७॥

आपके ऊरु (जॉंधें ) विशाल , मांसल एवं सुकोमल कान्तिसे युक्त हैं । वे लक्ष्मीके चित्तको चुरानेवाले हैं । ‘इन्हें देखकर निश्र्चय ही सारा विश्र्व क्षुब्ध हो उठेगा ’—— ऐसी आशङ्कासे आप निरन्तर इन्हें पीताम्बरसे ढके रखते हैं । झुककर प्रणिपात करनेवालोंके समक्ष रखे हुए समस्त पुरुषार्थोंकी पिटारीकी -सी शोभावाले आपके दोनों जानु हैं । प्रभो ! आपकी उन क्रमशः चढ़ाव -उतारवाली स्थूल एवं मनोहर पिण्डलियोंकी मैं चिन्तना करता हूँ ॥८॥

आपके चरणोंमें सुशोभित नूपुर अपनी मधुर झनकारक्षरा मानो यह घोषित कर रहा है कि आपके चरणोंकी सेवा ही श्रेयस्करी है । आपका पादाग्र -भाग -भ्रान्ति -सागरमें डूबने -उतरानेवाले प्रणतजनोंके मनरूपी मन्दराचलका उद्धार करनेके लिये मानो अवतारधारी कच्छप ही है । आपकी अँगुलियोंकी मङ्गलकारिणी पंक्ति उभड़े हुए अरुण वर्णके सुशोभित नखोंकी चॉंदनी -सी उज्जवल प्रभासे आश्रितजनोंके संताप और अज्ञानको हरनेवाली है , आपके ऐसे चरणोंका मैं ध्यान करता हूँ ॥९॥

नाथ ! आपके समस्त अङ्गवयवोंमें आपका पादमूल योगीन्द्रोंके लिये अतिशय सुमधुर , मुक्तिकी अभिलाषावालोंके लिये आश्रयस्थान और भक्तोंके लिये अभीष्टपूरक कल्पतरुके पल्लव -सदृश है । करुणासागर श्रीकृष्ण ! आपका वही पादमूल नित्य मेरे हृदयमें स्थित रहता है । अतः पवनपुरपते ! मेरे सम्पूर्ण कष्टोंका विनाश करके मुझे परमानन्दसंदोह - लक्ष्मी ——मोक्ष प्रदान कीजिये ॥१०॥

विश्र्वनाथ ! आपके महत्त्वको न जानकर इस स्तोत्रमें मैनें जो कुछ वर्णन किया है , उसे क्षमा करना । एक हजारसे भी अधिक श्लोकोंसे युक्त यह स्तोत्र आपको प्रसन्न करनेवाला हो । नारायणविषयक वर्णनसे युक्त एवं नारायण भट्टद्वारा विरचित यह द्य्वर्थक नारायणीय स्तोत्र , जो आपके श्रुतिप्रतिपादित जन्म एवं स्तुतियोंके वर्णन तथा लीलावतारोंसे व्याप्त है , इस जगत्में वक्ता -श्रोताको आयु तथा आरोग्य प्रदान करके अन्तमें मोक्षसुखका दाता हो ॥११॥

॥ अति केशादिपादवर्णनं शततमदशकं समाप्तम् ॥

॥ श्रीमन्नारायणीयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


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Last Updated : November 11, 2016

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