नवमस्कन्धपरिच्छेदः - चतुस्त्रिंशत्तमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


गीर्वाणैरर्थ्यमानो दशमुखनिधनं कोसलेष्वृष्यश़ृङ्गे पुत्रीयामिष्टिमिष्ट्वा ददुषि दशरथक्ष्माभृते पायसाग्र्य़म् ।

तद्भुक्त्या तत्पुरन्ध्रीष्वपि तिसृषु समं जातगर्भासु जातो

रामस्त्वं लक्ष्मणेन स्वयमथ भरतेनापि शत्रुघ्ननान्मा ॥१॥

कोदण्डी कौशिकस्य क्रतुवरमवितुं लक्ष्मणेनानुयातो

यातोऽभूस्तातवाचा मुनिकथितमनुद्वन्द्वशान्ताध्वखेदः ।

नृणां त्राणाय बाणैर्मुनिवचनबलात्तटकां पाटयित्वा

लब्ध्वास्मादस्त्रजालं मुनिवनमगमो देव सिद्धाश्रमाख्यम् ॥२॥

मारीचं द्रावयित्वा मखशिरसि शरैरन्यरक्षांसि निघ्रन्

कल्यां कुर्वन्नहल्यां पथि पदरजसा प्राप्य वैदेहगेहम् ।

भिन्दानश्र्चान्द्रचूडं धनुरवनिसुतामिन्दिरामेव लब्ध्वा

राज्यं प्रतिष्ठथास्त्वं त्रिभिरपि च समं भ्रातृवीरैः सदारैः ॥३॥

आरुन्धाने रुषान्धे भृगुकुलतिलके संक्रमय्य स्वतेजो

याते यातोऽस्ययोध्यां सुखमिह निवसन् कान्तया कान्तमूर्त्ते ।

शत्रुघ्नेनैकदाथो गतवति भरते मातुलस्याधिवासं

तातारब्धोऽभिषेकस्तव किल विहतः कैकयाधीशपुत्र्या ॥४॥

तातो क्या यातुकामो वनमनुजवधूसंयुतश्र्चापधारः

पौरानारुध्य मार्गे गुहनिलयगतस्त्वं जटाचीरधारी ।

नावा संतीर्य गङ्गामधिपदवि पुनस्तं भरद्वाजमारा -

न्नत्वा तद्वाक्यहेतोरतिसुखमवसश्र्चित्रकूटे गिरीन्द्रे ॥५॥

श्रुत्वा पुत्रार्तिखिन्नं खलु भरतमुखात् स्वर्गयातं स्वतातं

तप्तो दत्त्वाम्बु तस्मै निदधिथ भरते पादुकां मेदिनीं च ।

अत्रिं नत्वाथ गत्वा वनमतिविपुलं दण्डकं चण्डकायं

हत्वा दैत्यं विराधं सुगतिकमलयश्र्चारु भो शारभङ्गीम् ॥६॥

नत्वाऽगस्त्यं समस्ताशरनिकरसपत्राकृतिं तापसेभ्यः

प्रत्यश्रौषीः प्रियेषी तदनु च मुनिना दिव्यचापे ।

ब्रह्मास्त्रे चापि दत्ते पथि पितृसुहृदं वीक्ष्य भूयो जटायुं

मोदाद् गोदातटान्ते परिरमसि पुरा पञ्चवट्यां वधूट्या ॥७॥

प्राप्तायाः शूर्पणख्या मदनचलधृतेरर्थनैर्निस्सहात्मा

तां सौमित्रौ विसृज्य प्रबलतमरुषा तेन निर्लूननासाम् ।

दुष्ट्वैनां रुष्टचित्तं खरमभिपतितं दूषणं च त्रिमूर्द्धं

व्याहिंसीराशरानप्ययुतसमधिकांस्तत्क्षणादक्षतोष्मा ॥८॥

सोदर्या प्रोक्तवार्ताविवशदशमुखादिष्टमारीचमाया -

सारङ्गं सारसाक्ष्या स्पृहितमनुगतः प्रावधीर्बाणघातम् ।

तन्मायाक्रन्दनिर्यापितभवदनुजां रावणस्तामहार्षी -

त्तेनार्तोऽपि त्वमन्तः किमपि मुदमधास्तद्वधोपायलाभात् ॥९॥

भूयस्तन्वीं विचिन्वन्नहृत दशमुखस्त्वद्वधूं मद्वधेने -

त्युक्त्वा याते जटायौ दिवमथ सुहृदः प्रातनोः प्रेतकार्यम् ।

गृह्णानं तं कबन्धं जघनिथ शबरीं प्रेक्ष्य पम्पातटे त्वं

सम्प्राप्तो वातसूनुं भृशमुदितमनाः पाहि वातालयेश ॥१०॥

॥ इति श्रीरामचरितवर्णनं चतुस्त्रिंशत्तमदशकं समाप्तम् ॥

देवताओंने दशमुख रावणका वध करनेके लिये आपसे प्रार्थना की । तब (आपकी अन्तःप्रेरणासे ) महर्षि ऋष्यश़ृङ्ग कोसलदेशमें गये । उन्होंने भूपाल दशरथसे पुत्रेष्टि -यज्ञका अनुष्ठान कराकर उन्हें (अग्निप्रदत्त ) श्रेष्ठ पायस प्रदान किया ।

उस पायसका भक्षण करनेसे राजाकी तीन महारानियॉं (कौसल्या , सुमित्रा और कैकयी ) एक साथ ही गर्भवती हुईं । उनके गर्भसे स्वयं आपने राम -रूपसे लक्ष्मण , भरत और शत्रुघ्नके साथ अवतार लिया ॥१॥

देव ! बचपनमें ही आप पिताकी आज्ञासे महर्षि विश्र्वामित्रके श्रेष्ठ यज्ञकी रक्षा करनेके लिये धनुष धारण कर लक्ष्मणके साथ प्रस्थित हुए । मार्गमं मुनिद्वारा उपदेश किये गये दो मन्त्रों ——बला और अतिबला नामक दो विद्याओंके प्रभावसे आपका सारा मार्गश्रम शान्त हो गया । आपने मुनिके आदेशसे मनुष्योंकी रक्षा करनेके लिये बाणोंद्वारा ताटकाकी देह चीर डाली । तब विश्र्वामित्रजीने आपको बहुत -से अस्त्र प्रदान किये । उन्हें ग्रहण करके आप मुनिके सिद्धाश्रम नामक तपोवनमें पहुँचे ॥२॥

वहॉं यज्ञमण्डपके द्वारपर स्थित होकर बाणोंद्वारा मारीचको खदेड़कर (उडाकर ) अन्य राक्षसोंका संहार किया । पुनः मार्गमें अपनी चारणधूलिसे अहल्याको स्वस्थ (शापरहित ) करते हुऐ विदेहकी राजधानीमें जा पहुँचे । वहॉं शिवजीके पिनाकको तोड़कर लक्ष्मीस्वरूपिणी धरणिसुता सीताको प्राप्त करके अपने तीनों सपत्नीक वीर भाइयोंके साथ आप अपने राज्य कोसलको प्रस्थित हुए ॥३॥

मार्गमें भृगुकु लतिलक परशुरामजी क्रोधान्ध होकर आपसे उलझ पड़े , परंतु अन्तमें वे अपना वैष्णवतेज आपमें संस्थापित करके चले गये । कान्तमूर्ते ! तब आप अयोध्याको गये और वहॉं प्रियतमा सीताके साथ सुखपूर्वक निवास करने लगे । तदनन्तर एक समय जब कि भरत शत्रुघ्नके साथ अपने मामाके घर गये हुए थे , पिता दशरथजीने आपका अभिषेक -कार्य आरम्भ किया , परंतु केकयराजकुमारी कैकेयीने उसमें विघ्न डाल दिया ॥४॥

तब पिताके आदेशसे आप भाई लक्ष्मण तथा पत्नी सीताके साथ धनुष धारण करके वनमें जानेको प्रस्थित हुए । मार्गमें (साथ चलते हुए ) पुरवासियोंकी रोककर निषादराज गुहके घर पहुँचे । वहॉं जटा -चीरधारी होकर आपने नावसे गङ्गा पार करके मार्गमें महर्षि भरद्वाजके निकट जाकर उन्हें नमस्कार किया और उनके कथनानुसार आप गिरिराज चित्रकूटपर अतिशय सुखपूर्वक निवास करने लगे ॥५॥

वहॉं भरतके मुखसे अपने पिता दशरथजीको पुत्र -विरहसे खिन्न होकर स्वर्ग गया हुआ अर्थात् मृत्युको प्राप्त हुआ सुनकर आप दुःखाभिभूत हो गये । तब उन्हें तिलाञ्चलि देकर अपनी चरणपादुका तथा पृथ्वी भरतको सौंप दी । तदनन्तर अत्रिमुनिको नमस्कार करके अत्यन्त विस्तृत दण्डकारण्यमें चले गये । वहॉं प्रचण्ड शरीरवाले दैत्य विराधको मारकर शरभङ्ग मुनिको सुगति अर्थात् मुक्ति प्रदान की ॥६॥

पुनः महर्षि अगस्त्यको नमस्कार करके तापसोंका प्रिय करनेकी इच्छासे आपने उनसे सारे राक्षस -समुदायके वधकी प्रतिज्ञा की । तत्पश्र्चात् मुनिवर अगस्त्यने आपको दिव्य वैष्णव धनुष तथा ब्रह्मास्त्र प्रदान किया । आगे बढ़नेपर मार्गमें आपका अपने पिताके मित्र जटायुका दर्शन हुआ । तब गोदावरीके तटपर स्थित पञ्चवटीमें आप पत्नीसहित हर्षपूर्वक निवास करने लगे ॥७॥

एक दिन वहॉं शूर्पणखा नामकी राक्षसी जा पहुँची । (आपको देखकर ) कामदेवके वशीभूत होनेसे उसका धैर्य छूट गया । उसने आपसे प्रार्थना की , परंतु उसे सहन न करके आपने शूर्पणखाको सुमित्राकुमार लक्ष्मणके पास भेज दिया । लक्ष्मणने अतिशय क्रुद्ध होकर उसकी नाक काट ली (तब वह अपने भ्राता खरके पास पहुँची । ) ।

शूर्पणखाकी वह दुर्दशा देखकर रुष्टचित्त खर , दूषण और त्रिशिरा आपपर टूट पड़े । तब आपने उन्हें उसी क्षण दस हजारसे भी अधिक राक्षसोंसहित मृत्युके हवाले कर दिया , परंतु आपके उत्साह और तेजको कोई क्षति नही पहुँची ॥८॥

अपनी सहोदरा शूर्पणखाद्वारा बताये गये वृत्तान्तसे विवश हुए रावणके आदेशसे मारीच मायामृग बनकर सीताके सामने गया । उसे देखकर सारसके -से नेत्रवाली सीताने उसे प्राप्त करनेकी इच्छा प्रकट की । तब उसका पीछा करते हुए आपने उसपर एक बाणद्वारा चोट की । मरते समय उसकी कपटभरी पुकार सुनकर जिसने आपके अनुज लक्ष्मणको भेज दिया था , उस सीताको रावण हर ले गया । तब सीता -विरहसे दुःखी होनेपर भी रावणके वधके उपायकी प्राप्तिसे आप भीतर -ही -भीतर किसी अद्भुत आनन्दका अनुभव कर रहे थे ॥९॥

पुनः सूक्ष्माङ्गी सीताको खोजते हुए आप आगे बढ़े । तदनन्तर मार्गमें ‘रावण मेरा वध करके आपकी पत्नीको हर ले गया ’——यों कहकर जटायुके स्वर्ग चले जानेपर आपने अपने सुहृद् जटायुका प्रेत -कार्य सम्पन्न किया । फिर अपनेको पकड़नेवाले राक्षस कबन्धको मारा । तत्पश्र्चात् शबरीसे मिलकर आप पम्पा -तटपर पहुँचे । वहॉं वायु -पुत्र हनुमानसे भेंट हुईं , जिससे आपका मन अत्यन्त हर्षोल्लसित हो उठा । वातालयेश ! मेरी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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