पञ्चमस्कन्धपरिच्छेदः - विंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


प्रियव्रतस्य प्रियपुत्रभूतादाग्नीध्रराजादुदितो हि नाभिः ।

त्वां दृष्टवानिष्टदमिष्टिमध्ये तवैव तुष्ट्यै कृतयज्ञकर्मा ॥१॥

अभिष्टुतस्तत्र मुनीश्र्वरैस्त्वं राज्ञः स्वतुल्यं सुतमर्थ्यमानः ।

स्वयं जनिष्येऽहमिति ब्रुवाणस्तिरोदधा बर्हिषि विश्र्वमूर्ते ॥२॥

नाभिप्रियायामथ मेरुदेव्यां त्वमंशतोऽभूर्ऋृषभाभिधानः ।

अलोकसामान्यगुणप्रभावप्रभाविताशेषजनप्रमोदः ॥३॥

त्वयि त्रिलोकीभृति राज्यभारं निधाय नाभिः सह मेरुदेव्या ।

तपोवन प्राप्य भवन्निषेवी गतः किलानन्दपदं पदं ते ॥४॥

इन्द्रस्त्वदुत्कर्षकृतादमर्षाद्ववर्ष नास्मिन्नजनाभवर्षे ।

यदा तदा त्वं निजयोगशक्त्या स्ववर्षमेनद्व्यदधाः सुवर्षम् ॥५॥

जितेन्द्रदत्तां कमनीं जयन्तीमथोद्वहन्नात्मरताशयोऽपि ।

अजीजनस्तत्र शतं तनूजानेषां क्षितीशो भरतोऽग्रजन्मा ॥६॥

नवाभवन् योगिवरा नवान्ये त्वपालयन् भारतवर्षखण्डान् ।

सैका त्वशीतिस्तव शेषपुत्रास्तपोबलाद् भूसुरभूयमीयुः ॥७॥

उक्त्वा सुतेभ्योऽथ मुनीन्द्रमध्ये विरक्तिभक्त्यन्वितमुक्तिमार्गम् ।

स्वयं गतः पारमहंस्यवृत्तिमधा जडोन्मत्तपिशाचचर्याम् ॥८॥

परात्मभूतोऽपि परोपदेशं कुर्वन् भवान् सर्वनिरस्यमानः ।

विकारहीनो विचचार कृत्स्नां महीमहीनात्मरसाभिलीनः ॥९॥

शयुव्रतं गोमृगकाकचर्यां चिरं चरन्नाप्य परं स्वरूपम् ।

दवाहृताङ्गः कुटकाचले त्वं तापान् ममापाकुरु वातनाथ ॥१०॥

॥ इति ऋषभयोगीश्र्वरचरितवर्णनं विंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

स्वायम्भुव मनुके ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रतके प्रिय पुत्र राजा आग्नीध्र हुए । उनसे नाभिकी उत्पत्ति हुई । महाराज नाभि आपकी ही प्रसन्नताके लिये यज्ञकर्म कर रहे थे । उसी यज्ञमें उन्हें अभीष्टदाता आपका दर्शन हुआ ॥१॥

विश्र्वमूर्ते ! उस समय मुनीश्र्वरोंने आपकी स्तुति की और राजा नाभिके लिये आपसे आपके ही समान पुत्रकी याचना की , तब आप ‘मैं स्वयं ही राजाके पुत्ररूपमें उत्पन्न होऊँगा ’ । यों कहकर उस यज्ञाग्निमें अन्तर्हित हो गये ॥२॥

तदनन्तर नाभिकी प्रियतमा पत्नी मेरुदेवीके गर्भसे आप अपने अंशरूपसे प्रकट हुए । उस समय आपका नाम ऋृषभ रखा गया । आप अपने अमानुष गुणों तथा प्रभावोंके द्वारा सभी लोगोंको आनन्दित कर रहे थे ॥३॥

तब महाराज नाभि त्रिलोकीका भरण -पोषण करनेमें समर्थ आपके अंशभूत ऋषभपर राज्यभार छोड़कर मेरुदेवीके साथ तपोवनको चले गये । वहॉं वे आपकी सेवामें तत्पर हो गये और अन्तमें निरतिशय सुखके स्थानभूत आपके वैकुण्ठधामको चले गये ॥४॥

आपके उत्कर्षको देखकर इन्द्रको अमर्ष हो आया , इसलिये जब उन्होंने आपके राज्य अजनाभवर्षमें वर्षा नहीं की , तब आपने अपनी योगशक्तिके बलसे अपने इस वर्षमें सुन्दर विधान किया ॥५॥

यद्यपि आप आत्मामें ही रमण करनेवाले हैं तथापि आपने विजित इन्द्रद्वारा प्रदान की हुई सुन्दरी जयन्तीके साथ विवाह किया । उसके गर्भसे आपने सौ पुत्रोंको जन्म दिया , जिनमें भूपाल भरत सबसे ज्येष्ठ थे ॥६॥

आपके उन सौ पुत्रोंमें नौ तो योगिराज हो गये और दुसरे नौ भारतवर्षके विभिन्न खण्डोंके राजा हुए आपके शेष इक्यासी पुत्र अपने तपोबलसे ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो गये ॥७॥

स्वयं ऋृषभदेवने मुनीश्र्वरोंके मध्यमें भरत आदि पुत्रोंके प्रति विरक्ति -भक्तिसमन्वित मुक्तिमार्गका उपदेश देकर परमहंस -वृत्तिको धारण कर लिया । तत्पश्र्चात् वे जड , उन्मत्त तथा पिशाचकी भॉंति आचरण करने लगे ॥८॥

परमात्मस्वरूप होनेपर भी आप दूसरोंको उपदेश करते हुए सब कुछ छोड़कर अर्थात् अवधूतवेषमें विकाररहित हो परमानन्दानुभवमें अभिलीन -जीवन्मुक्तकी भॉंति सम्पूर्ण पृथ्वीपर विचरण करते रहे ॥९॥

आप चिरकालतक आजगर व्रत तथा गौ , मृग और कौए -जैसी चर्यासे जीवन निभाते रहे । तदन्तर परम -स्वरूपको प्राप्त होकर कुटकाचलपर आपने दावाग्निद्वारा शरीरको भस्म कर दिया । वातनाथ ! मेरे भी तापोंको दूर कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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