चतुर्थस्कन्धपरिच्छेदः - एकोनविंशतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


पृथोस्तु नप्ता पृथुधर्मकर्मठः प्राचीनबर्हिर्युवतौ शतद्रुतौ ।

प्रचेतसो नाम सुचेतसः सुतानजीजनत्त्वत्करुणाङ्कुरनिव ॥१॥

पितुः सिसृक्षानिरतस्य शासनाद् भवत्तपस्याभिरता दशापि ते ।

पयोनिधिं पश्र्चिममेत्य तत्तटे सरोवरं संददृशुर्मनोहरम् ॥२॥

तदा भवत्तीर्थमिदं समागतो भवो भवत्सेवकदर्शनादृतः ।

प्रकाशमासाद्य पुरः प्रचेतसामुपादिशद् भक्ततमस्त्व स्तवम् ॥३॥

स्तवं जपन्तस्तममी जलान्तरे भवन्तमासेविषतायुतं समाः ।

भवत्सुखास्वादरसादमीष्वियान् बभूव कालो ध्रुववन्न शीघ्रता ॥४॥

तपोभिरेषामतिमात्रवर्धिभिः स यज्ञहिंसानिरतोऽपि पावितः ।

पितापि तेषां गृहयातनारदप्रदर्शितात्मा भवदात्मतां ययौ ॥५॥

कृपाबलेनैव पुरः प्रचेतसां प्रकाशमागाः प्रतेगन्द्रवाहनः ।

विराजिचक्रादिवरायुधांशुभिर्भुजाभिरष्टाभिरुदञ्चितद्युतिः ॥६॥

प्रचेतसां तावदयाचतामपि त्वमेव कारुण्यभराद्वरानदाः ।

भवद्विचिन्तापि शिवाय देहिनां भवत्वसौ रुद्रनुतिश्र्च कामदा ॥७॥

अवाप्य कान्तां तनयां महीरुहां

तया रमध्वं दशलक्षवत्सरीम् ।

सुतोऽस्तु दक्षो ननु तत्क्षणाच्च मां

प्रयास्यथेति न्यगदो मुदैव तान् ॥८॥

ततश्र्च ते भूतलरोधिनः तरून् क्रुधा दहन्तो द्रुहिणेन वारिताः ।

द्रुमैश्र्च दत्तां तनयामवाप्य तां त्वदुक्तकालं सुखिनोऽभिरेमिरे ॥९॥

अवाप्य दक्षं च सुतं कृताध्वराः प्रचेतसो नारदलब्धया धिया ।

अवापुरानन्दपदं तथाविधस्त्वमीश वातालयनाथ पाहि माम् ॥१०॥

॥ इति प्रचेतःकथानुवर्णनम् एकोनविंशतितमदशकं समाप्तम् ॥

भगवन् ! पृथुके ही वंशमे उनके प्रपौत्र महाराज प्राचीनबर्हि हुए , जो पृथुके ही समान धर्मात्मा तथा कर्मकाण्डमें निष्णात थे । उन्होनें अपनी भार्या शतद्रुतिके गर्भसे प्रचेतस् (प्रचेता ) नामवाले पुत्रोंको पैदा किया । वे सब -के -सब शुद्ध चित्तवाले तथा आपकी करुणाके अङ्करसदृश थे ॥१॥

प्रजाकी सृष्टिमें निरत रहनेवाले पिताके प्रजा -सृष्टिके लिये आदेश देनेपर वे दसों पुत्र आपकी तपस्यामें तत्पर होकर पश्र्चिम -समुद्रके तटपर चले गये । वहॉं उन्हें एक मनोहर सरोवर दृष्टिगोचर हुआ ॥२॥

तब भक्तश्रेष्ठ भगवान् शंकर आपके सेवकोंके दर्शनकी अभिलाषासे आपके इस तीर्थक्षेत्रमें पधारे और प्रचेताओंके सामने प्रकट होकर उन्होंने उन्हें आपके स्त्रोतका उपदेश दिया ॥३॥

तब ये सब -के -सब जलके भीतर घुसकर उस स्त्रोतका पाठ करते हुए दस हजार वर्षतक आपके स्तवनमें लगे रहे । आप ही जिसके सुख है , उस ब्रह्मानन्दके आस्वादनमें रस मिलनेके कारण इनका इतना समय व्यतीत हो गया । इनमें ध्रुवके समान शीघ्रता नहीं थी ॥४॥

इनके अत्यन्त वृद्धिंगत तपोबलसे यज्ञहिंसामे निरत रहनेपर भी वेन पावन हो गये अर्थात् पापके क्षय हो जानेसे उनका नरक से उद्धार हो गया । इनके पिता प्राचीनबर्हि भी गृहागत नारदद्वारा आत्मज्ञान लाभ करके सायुज्य मुक्तिको प्राप्त हो गये ॥५॥

जिनकी आठ भुजाओंमें कान्तिमान् चक्र आदि श्रेष्ठ आयुधोंकी किरणें उद्दीप्त थीं तथा उन आयुधयुक्त भुजाओंके कारण जिनकी दीप्ति अत्यन्त उद्भासित थी और जो पक्षिराज गरुडपर सवार थे , वे आप भगवान् विष्णु अपनी कृपाके बलसे ही प्रचेताओंके दृष्टिगोचर हुए । जबतक प्रचेताओंने कोई याचना नहीं की उसके पूर्व ही अपने स्वयं अपनी करुणाके वशीभूत हो उन्हें यह वर प्रदान किया ——‘शरीरधारियोंके लिये तुमलोगोंका अनुस्मरण भी मङ्गलकारक होगा तथा रुद्रद्वारा गायी हुई मेरी यह स्तुति अभीष्ट -दायिनी होगी ’ ॥६ -७॥

‘ तुमलोग वृक्षोंकी कन्याको पत्नीरूपमें प्राप्त करके उसके साथ दस लाख वर्षोंतक सुखोपभोग करोगे । उससे दक्ष नामक पुत्र उत्पन्न होगा पुनः निश्र्चित समयके पश्र्चात् उसी क्षण मुझे प्राप्त कर लोगे अर्थात् मुक्त हो जाओगे। ’ यों आपने अपनी प्रसन्नतासे ही उन्हें वरदान दिया था ॥८॥

आपके अन्तर्धान हो जानेपर जब वे प्रचेतागण क्रुद्ध होकर भूतलावरोधी वृक्षोंको जलाने लगे , तब ब्रह्माने आकर उन्हें मना किया । उसी समय वृक्षोंने उन्हें अपनी कन्या प्रदान कर दी । उसे पाकर वे आपद्वारा निर्धारित कालतक उसके साथ सुखपूर्वक रमण करते रहे ॥९॥

इसी बीचमें उन्हें दक्ष नामक पुत्रकी प्राप्ति हुई । तत्पश्र्चात् ब्रह्मसत्र (ज्ञानयज्ञ )- का अनुष्ठान आरम्भ करके नारदद्वारा प्राप्त हुए उपदेशसे वे प्रचेतागण आनन्दस्वरूप आपको प्राप्त हुए उपदेशसे वे प्रचेतागण आनन्दस्वरूप आपको प्राप्त हो गये । ईश ! आप ऐसे भक्तवत्सल हैं । अतः वातालयनाथ ! मेरी भी रक्षा कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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