चतुर्थस्कन्धपरिच्छेदः - अष्टादशदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


जातस्य ध्रुवकुल एव तुङ्गकीर्ते -

रङ्गस्य व्यजनि सुतः स वेननामा ।

तद्दोषव्यथितमतिः स राजवर्य -

स्त्वत्पादे निहितमा वनं गतोऽभूत् ॥१॥

पापोऽपि क्षितितलपालनाय वेनः

पौराद्यैरुपनिहितः

सर्वेभ्यो निजबलमेव सम्प्रंशसन्

भूचक्रे तव यजनान्ययं न्यरौत्सीत् ॥२॥

सम्प्राप्ते हितकथनाय तापसौघे

मत्तोऽन्यो भुवनपर्तिर्न कश्र्चनेति ।

त्वन्निन्दावचनपरो मुनीश्र्वरैस्तैः

शापाग्नौ शलभदशामनायि वेनः ॥३॥

तन्नाशात् खलजनभीरुकैर्मुनीन्द्रै -

स्तन्मात्रा चिरपरिरक्षिते तदङ्गे ।

त्यक्ताघे परिमथितादथोरुदण्डा -

द्दोर्दण्डे परिमथिते त्वमाविरासीः ॥४॥

विख्यातः पृथुरिति तापसोपदिष्टैः

सूताद्यैः परिणुतभाविभूरिवीय्रः ।

वेनार्त्या कवलितसम्पदं धरित्री -

माक्रान्तां निजधनुषा समामकार्षीः ॥५॥

भूयस्तां निजकुलमुख्यवत्सयुक्तै -

र्देवाद्यैः समुचितचारुभाजनेषु ।

अन्नादीन्यभिलषितानि यानि तानि

स्वच्छन्दं सुरभितनूमदूदुहस्त्वम् ॥६॥

आत्मानं यजति मखैस्त्वयि त्रिधाम -

न्नारब्धे शततमवजिमेधयागे ।

स्पर्धालुः शतमख एत्य नीचवेषो

हृत्वाश्र्वं तव तनयात् पराजितोऽभूत् ॥७॥

देवेन्द्रं मुहुरिति वाजिनं हरन्तं

वह्नौ तं मुनिवरमण्डले जुहूषौ ।

रुन्धाने कमलभवे क्रतोः समाप्तौ

साक्षात्त्वं मधुरिपुमैक्षथाः स्वयं स्वम् ॥८॥

तद्दत्तं वरमुपलभ्य भक्तिमेकां

गङ्गान्ते विहितपदः कदापि देव ।

सत्रस्थं मुनिनिवहं हितानि शंस -

न्नैक्षिष्ठाः सनकमुखान् मुनीन् पुरस्तात् ॥९॥

विज्ञानं सनकमुखोदितं दधानः

स्वात्मानं स्वयमगमो वनान्तसेवी ।

तत्तादृक्पृथुवपुरीश सत्वरं मे

रोगौधं प्रशमय वातगेहवासिन् ॥१०॥

॥ इति पृथुचरितवर्णनम् अष्टादशदशकं समाप्तम् ॥

ध्रुवकुलमें ही उत्पन्न हुए उच्चकीर्तिवाले महाराज अङ्गके (सुनीथा नामकी पत्नीसे ) एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम वेन था । उस पुत्रके दोषसे खिन्नचित्त होकर वे राजश्रेष्ठ अङ्ग आपके चरणोंमें मनको समाहित करके वनवासी हो गये ॥१॥

यद्यपि वेन पापकर्म करनेवाला था , तथापि पुरवासियोंने भूतलका पालन करनेके लिये उसे सिंहासनपर बैठाकर अभिषिक्त कर दिया । तब उस उग्रपराक्रमी वेनने सभी लोगोंसे अपने बलकी ही प्रशंसा करते हुए भूतलपर आपके यजन -पूजनमें रोक लगा दी ॥२॥

तब मुनियोंका समुदाय उसे हितकारी परामर्श देनेके लिये उसके पास आया , परंतु वेनने उत्तर दिया कि ‘मेरे अतिरिक्त दूसरा कोई लोकेश्र्वर है ही नही । ’ जब वह यों आपकी निन्दा करने लगा , तब उन मुनीश्र्वरोंने वेनको शापाग्निमें पतिंगेकी दशाको पहुँचा दिया ॥३॥

वेनकी माता सुनीथा दीर्घकालतक उसके शरीरकी रक्षा करती रही । तब वेनके नाशसे फैली हुई अराजकताके कारण खलजनोंसे भयभीत हुए मुनीश्र्वरोंनें वेनके ऊरदण्डका मन्थन किया , जिससे निषादकी उत्पत्ति हुई और उसका पाप निकल गया । पुनः उसकी भुजाका मन्थन करनेपर स्वयं आप प्रकट हुए ॥४॥

उस समय आप पृथु नामसे विख्यात हुए । तब मुनीश्र्वरोंके उपदेशसे सूत -मागध आदि आपके भावी उत्कृष्ट पराक्रमकी प्रशंसा करने लगे । वेनके अत्याचारसे व्यथित होकर पृथ्वीने ओषधिरूपी सम्पत्तिको ग्रसित कर लिया था । किंतु आपने उसपर आक्रमण करके अपने धनुषसे उसको समतल बना दिया ॥५॥

पुनः पृथुस्वरूप आपने पृथ्वीका दोहन किया । उस समय देवादिकोंनें जिसे जिन -जिन अन्न आदि ओषधियोंकी अभिलाषा हुई , उन -उनको अपने -अपने कुलके प्रधान पुरुषोंको वत्सरूपमें नियुक्त करके समुचित सुन्दर पात्रोंमें स्वच्छन्दतापूर्वक गोरूपधारिणी पृथ्वीसे दुहा ॥६॥

त्रिधामन् । जब पृथुरूप आप यज्ञोंद्वारा आत्मस्वरूप विष्णुका यजन कर रहे थे , उस समय जब सौवॉं अश्र्वमेघ -यज्ञ प्रारम्भ हुआ तब इन्द्रके मनमें स्पर्धा उत्पन्न हो गयी । फिर तो वे कपटवेष धारण करके वहॉं आये और आपके यज्ञिय अश्र्वको चुराकर चलते बने । परंतु आपके पुत्रसे उन्हें पराजित होना पड़ा ॥७॥

यों बारंबार यज्ञिय अश्र्वका अपहरण करनेवाले देवराज इन्द्रको जब मुनिवरमण्डलने दक्षिणाग्निमें होम देनेकी इच्छा की , तब ब्रह्माने आकर उन्हें मना कर दिया । फिर यज्ञ -समाप्तिके अवसरपर आपने स्वयं आत्मस्वरूप मधुरसूदनका साक्षात्कार किया ॥८॥

विष्णुभगवान्ने आपको वरदानरूपमें अपनी अनपायिनी भक्ति प्रदान की । देव ! तदनन्तर गङ्काके तटपर स्थान नियत करके आपने यज्ञ आरम्भ किया । उस यज्ञमें पधारे हुए मुनिगणको प्रवृत्ति तथा निवृत्ति लक्षणवाले धर्मका उपदेश करते हुए आपने अपने समक्ष सनकादि मुनियोंको उपस्थित देखा ॥९॥

तब सनकादिद्वारा उपदिष्ट ब्रह्मज्ञानको भलीभॉंति धारण करके आप वनवास करने लगे और वहॉं स्वयं स्वरूपभूत परब्रह्मको प्राप्त हो गये । इस प्रकार पृथु -शरीर धारण करनेवाले परमेश्र्वर ! वातगेहवासिन् ! शीघ्र ही मेरे रोगसमूहको शान्त कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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