प्रथमस्कन्धपरिच्छेदः - तृतीयदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


पठन्तो नामानि प्रमदभसिन्धौ निपतिताः

स्मरन्तो रूपं ते वरद कथयन्तो गुणकथाः ।

चरन्तो ये भक्तास्त्वयि खलु रमन्ते परममू -

नहं धन्यान् मन्ये समाधिगतसर्वाभिलषितान् ॥१॥

गदक्लिष्टं कष्टं तव चरणसेवारसभरे -

ऽप्यनासक्तं चित्तं भवति बत विष्णो कुरु दयाम् ।

भवत्पादाम्भोजस्मरणरसिको नामनिवहा -

नहं गायं गायं कुहचन विवत्स्यामि विजने ॥२॥

कृपा ते जाता चेक्तिमिव न हि लभ्यं तनुभृतां

मदीयक्लेशौघप्रशमनदशा नाम कियती ।

न के के लोकेऽस्मिन्ननिमयि शोकाभिरहिता

भवद्भक्ता मुक्ताः सुखगतिमसक्ता विदधते ॥३॥

मुनिप्रौढा रूढा जगति खलु गूढात्मगतयो

भवत्पादाम्भोजस्मरणविरुजी नारदमुखाः ।

चरन्तीशं स्वैरं सततपरिनिर्भातपरचित् -

सदानन्दाद्वैतप्रसरपरिमग्नाः किमपरम् ॥४॥

भवद्भक्तिः स्फीता भवतु मम सैव प्रशमये -

दशेषक्लेशौघं न खलु हृदि संदेहकणिका ।

न चेद् व्यासस्योक्तिस्तव च वचनं नैगमवचो

भवेन्मिथ्या रथ्यापुरुषवचनप्रायमखिलम् ॥५॥

भवद्भक्तिस्तावत्प्रमुखमधुरा त्वद्गुणरसात्

किमप्यारूढा चेदखिलपरितापप्रशमनी ।

पुनश्र्चान्ते स्वान्ते विमलपरिबोधोदयमिल -

न्महानन्दाद्वैतं दिशति किमतः प्रार्थ्यमपरम् ॥६॥

विधूय क्लेशान् मे कुरु चरणयुग्मं धृतरसं

भवत्क्षेत्रप्राप्तौ करमपि च ते पूजनविधौ ।

भवन्मूर्त्यालोके नयनमथ ते पादतुलसी -

परिघ्राणे घ्राणं श्रवणमपि ते चारुचरिते ॥७॥

प्रभूताधिव्याधिप्रसभचलिते मामकहृदि

त्वदीयं तद्रूपं परमसुखचिद्रूपमुदियात् ।

उदञ्चद्रोमाञ्चो गलितबहुहर्षाश्रुनिवहो

यथा विस्मर्यासं दुरुपशमपीडापरिभवान् ॥८॥

मरुद्गेहाधीश त्वयि खलु पराञ्चोऽपि सुखिनो

भवत्स्नेही सोऽहं सुबहु परितप्ये च किमिदम् ।

अकीर्तिस्ते मा भूद् वरद गदभारं प्रशमयन्

भवद्भक्तोत्तसं झटिति कुरु मां कंसदमन ॥९॥

किमुक्तैर्भूयोभिस्तव हि करुणा यावदुदिया -

दहं तावद् देव प्रहितविविधार्थप्रलपितः ।

पुरः क्लृप्ते पादे वरद तव नेष्यामि दिवसान्

यथाशक्ति व्यक्तं ननिनुतिनिषेवा विरचयन् ॥१०॥

॥ इति भक्तस्वरूपादिवर्णनं तृतीयदशकं समाप्तम् ॥

वरद ! जो भक्त आपके नामोंका उच्चस्वरसे कीर्तन , स्वरूपका स्मरण तथा गुणानुवादका परस्पर कथन करते हुए आनन्दातिशय सागरमें सदा निमग्न रहते हैं और विरक्त होकर विचरण करते हुए आपमें ही रमण करते हैं , केवल उन्हीं भक्तोंको मैं परम भाग्यशाली मानता हूँ ; क्योंकि समस्त ईप्सित पदार्थ उन्हें हस्तगत हो गये हैं ॥१॥

खेद है की व्याधि आदिसे संतप्त हुआ यह चित्त आपके चरणकमलोंकी सेवाके रस -सिन्धुमें भी आसक्त नहीं हो रहा है । अतः विष्णो ! आप ही मुझपर दया किजिये । अब मैं आपके पादपद्मोंके स्मरणका रसिक होकर आपके नामसमूहोंका बारंबार कीर्तन करता हुआ किसी निर्जन स्थानमें निवास करूँगा ॥२॥

अयि विष्णो ! यदि आपकी कृपा हो गयी तो देहधारियोंके लिये क्या अलभ्य रह जाता है ? अर्थात् उन्हें सब कुछ सुलभ हो जाता है । ऐसी दशामें मेरे कष्टसमूहकी समूलान्मूलनरूपा अवस्थाकी क्या बिसात है ? इस लोकमें आपके कौन -कौन ऐसे भक्त हैं जो निरन्तर शोकसे रहित एवं जीवन्मुक्त हो अनासक्त भावसे रहते हुए सुखकी उपलब्धि नहीं करते हैं ? (अर्थात् वे सभी सुखमें निमग्न हैं ) ॥३॥

ईश ! आपके चरणमकमलोंके स्मरणसे जो सारी आधि -व्याधि , पीड़ाके नष्ट हो जानेसे रोगरहित हो गये हैं , जिनकी अपनी गति गूढ़ (अव्यक्त ) है तथा जो संसारमें प्रसिद्ध हैं , ऐसे नारद आदि मुनिश्रेष्ठ सतत प्रकाशमान परम सच्चिदानन्दमय अद्वैत रसके प्रवाहमें निमग्न हो जगत्में स्वच्छन्दतापूर्वक विचरते रहते हैं । इसस बढ़कर और क्या चाहिये ?॥४॥

आपमें मेरी भक्ति बढ़ती रहे ; वही मेरे सम्पूर्ण कष्टसमूहोंका विनाश कर सकती है । इस विषयमें लेशमात्र संदेहके लिये भी मेरे हृदयमें स्थान नहीं है । यदि ऐसी बात नहीं हुई तो व्यासजीका कथन , आपका वचन और वेद -वाक्य -ये सब -के -सब सड़कोंपर बकनेवाले पुरुषोंके वचनोंके समान मिथ्या हो जायँगे ॥५॥

आपकी भक्ति तो प्रारम्भसे ही परम मधुर -सुखरूपा है । वही यदि आपके गुणानुवाद -श्रवण -रससे कुछ और ऊँची भूमिकाको प्राप्त हुई तब तो सम्पूर्ण परितापोंका समूल विनाश कर देती है । फिर अन्तमें वह भक्तके हृदयमें निर्मल ज्ञानोदयेसे संयुक्त अद्वितीय ब्रह्मानन्द प्रदान करती हैं । इससे बढ़कर और क्या वस्तु है , जिसके लिये किसीके सामने हाथ फैलाया जाय ? ॥६॥

भगवन् ! मेरे बाह्याभ्यन्तर समस्त क्लेशोंका विनाश करके आप ऐसा कर दें कि मेरे युगल चरण आपके क्षेत्र -तीर्थादिकी यात्रा करनेमें , दोनों हाथ आपकी पूजन -क्रियामें , नेत्र आपकी मूर्तिके दर्शनमें , घ्राणेन्द्रिय आपके पादपद्मोंपर समर्पित हुई तुलसीकी गन्धके ग्रहणमें और कान आपके मनोहर चरितके श्रवणमें आनन्द लेने लगें ॥७॥

प्रभो ! परमानन्द एवं चिद्ज्ञानस्वरूप आपका वह रूप विपुल आधि -व्याधियोंद्वारा बलपूर्वक चलायमान किये गये मेरे हृदयमें इस प्रकार उदय हो जाय , जिससे पुलकाङ्कितशरीर तथा अधिक मात्रामें हर्षजनित अश्रुजल बहाता हुआ मैं दुर्दमनीय पीड़ाओंद्वारा उत्पन्न किये गये उपद्रवोंको भलीभॉंति भूल जाऊँ ॥८॥

श्रीगुरुवायुपुरनाथ ! आपसे विमुख हुए नास्तिक भी जगतमें सुखी देखे जाते है ; परंतु मैं आपका स्नेही हूँ , फिर भी अधिक परितापका अनुभव कर रहा हूँ । यह क्या बात है ? वरदायक ! कंसविनाशक ! आपकी यह वैषम्यजनित दुष्कीर्ति न हो , इसके पहले ही आप मेरे रोगभारको भलीभॉंति शान्त करते हुए शीघ्र ही मुझे अपने भक्तोंमें शिरोमणि बना दीजिये ॥९॥

देव ! आपकी करुणाके अभावमें अधिक प्रलाप करनेसे क्या लाभ ? अर्थात् कुछ नहीं । अतःवरद ! जबतक आपकी करुणाका प्रादुर्भाव होगा तबतक मैं अनेक प्रकारके आर्तप्रलापका परित्याग करके पहले निश्र्चय किये हुए आपके श्रीचरणमें यथाशक्ति स्पष्टरूपसे नमस्कार , स्तुति और सेवा -पूजा करते हुए अपने दिन बताऊँगा ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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